रविवार, मई 22, 2011

कुछ नए दोस्तों ने जीने की वजहें दीं


अपने ऑपरेशन के बाद ये मेरी पहली यात्रा थी जो बेहद असमंजस और उलझन में तय हुई थी. असमंजस इस बात का कि ऑपरेशन के बाद मेरे आराम के लिए जो अवधि डॉक्टर ने तय की थी वो अभी पूरी नहीं हुई थी, ऐसे में यात्रा के दौरान कोई मुश्किल न खड़ी हो जाये ऐसा डर था और उलझनें तो बस मन की ही बनाई हुई थीं. जब अपने आप को हर तरह से घिरा हुआ और परेशान पाती हूँ तब सबसे ज्यादा माँ को ही याद करती हूँ. मुझे यकीन है कि माँ को कह देने मात्र से मेरी सभी उलझनों का हल खुद-ब-खुद निकल आता है. पता नहीं उनकी दुआओं का असर कैसा होता है कि कई बार बिना कहे भी वो मेरी परेशानियों का हल निकाल देती हैं.

लेकिन इस बार का गम ऐसा नहीं था जिसका कोई हल माँ के पास होता. मेरे अन्दर के ही एक डर ने मुझे आठों पहर घेरे रखा और मेरा अपना अस्तित्व भी एक भ्रम सा लगने लगा. अपने ही उगाये ग़मों की पोटली बांधकर मैं खुद से भागने की फ़िराक में, यात्रा की थोड़ी-बहुत मुश्किलों को पार करके माँ के पास पहुँची. पहली नज़र में ही माँ को मैंने पहले से काफ़ी कमज़ोर और थका हुआ पाया. बहुत बार ऐसा होता है कि मैं उन्हें देखकर बिना वजह ही रुआंसी हो जाती हूँ. मुझे ऐसा महसूस होता है कि पापा के देहांत के बाद पिछले पन्द्रह सालों में उनका परिवार और उनका अकेलापन दोनों ही बढ़ा है. पर अपने अन्दर साहस भी मैं उन्हीं को देखकर जुटा पाती हूँ.

दो दिन का तय जयपुर प्रवास, जो वहाँ पहुंचकर चार दिन में तब्दील हो गया, इस लिहाज से अच्छा ही रहा कि कुछ वक्त माँ के साथ अकेले में बिताने का मौका मिला. इस दौरान दो बहुत पुराने मित्रों से भी मुलाकात हुई. लोग कहते हैं कि पुराने मित्रों से जो अपनापन और प्यार मिलता है वो बाद में बने हुए मित्रों से नहीं मिलता. पर मेरा अनुभव कुछ ऐसा रहा है कि कुछ बेहद करीबी पुराने दोस्त वक्त के साथ कहीं खो गये और कुछ नए दोस्तों ने जीने की वजहें दीं. ऐसे ही एक नए दोस्त से दो मिनट की छोटी सी, मगर यादगार मुलाक़ात इसी प्रवास के दौरान हुई.

कुल मिलाकर सात-आठ दिन खुद से भागते-भागते अब फिर से खुद की ही गिरफ्त में हूँ. ज़िंदगी की गाड़ी हमेशा अपनी पटरी पर आगे बढती तो रहती है पर पीछे जाने क्या छोड़ आती है कि वहाँ से सदायें आते ही अपना रुख भूलने लगती है. शायद कुछ तयशुदा ग़मों की नियति कभी नहीं बदलती.



सोमवार, मई 09, 2011

आपको ये सरप्राइज़ कैसा लगा?

"मम्मा, आप अभी कुछ देर मेरे कमरे में मत आना." बिटिया ने कल सुबह बड़े प्यार से कहा. मैंने पूछा," क्यों, कोई खास बात?" बिटिया वहीं से बोली,"हाँ खास बात तो है ही ना. आज 'मदर्स डे' है और मैं अपनी मम्मा के लिए अपने हाथों से एक कार्ड बनाना चाहती हूँ, जो आप अभी नहीं देख सकते हो." "ठीक है जी.", कहते हुए मैं अपने दूसरे कामों में व्यस्त हो गयी. सोचती रही कि बेटियाँ कितनी प्यारी होती हैं. जिया के साथ बीते पिछले नौ सालों का एक-एक लम्हा याद करके मैं मन ही मन मुस्कुराती रही.

घंटे भर में ही एक खूबसूरत कार्ड तैयार था. जिया ने मुझे आँखें बंद करने को कहा और कार्ड को कुछ इस तरह से मेरे हाथों में रखा कि मेरी आँखें खुलते ही वो मुझे दिख जाये. मतलब ये कि जिया मेरी खुशी को हर संभव बढ़ाना ही चाह रही थी. कार्ड तो खूबसूरत होना ही था इतने प्यार से जो बना था. मैंने अपनी खुशी का इज़हार करते हुए जिया से कहा," अरे वाह, ये तो बहुत ही सुन्दर कार्ड बनाया है आपने." जिया रानी थोड़ी सी मायूस होते हुए बोली,"ये पूरा कार्ड मैंने नहीं बनाया है. मेरी ड्राइंग इतनी अच्छी कहाँ है? मैंने तो मेरी एक पुरानी किताब में से ये चित्र काटा, फिर उसमे रंग भरा और उसे एक सफ़ेद कागज़ का कार्ड बनाकर उस पर चिपका दिया." मैंने मुस्कुराते हुए उस से कहा," आपके पास तो बड़े अच्छे और नए आईडिया हैं." अब जिया ने खुश होते हुए कहा,"आप तो बस इतना बताओ मम्मा कि आपको ये सरप्राइज़ कैसा लगा?" मैंने उसे गले लगते हुए कहा," बहुत अच्छा, लेकिन आपसे थोड़ा कम अच्छा."


जिया ने कार्ड के अन्दर लिखा था," मेरी माँ मेरे लिए भगवान है." मैंने पूछा कि क्या सोचकर आपने ऐसा लिखा? जिया बोली, "कुछ अच्छा सा लिखना चाह रही थी और इससे अच्छा कुछ सूझा ही नहीं, इसलिए यही लिख दिया."

कुल मिलाकर यही कि 'मदर्स डे' पर मेरी प्यारी बिटिया ने मुझे खुश करने के लिए ढेर सारे जतन किये और मेरा दिन खूबसूरत बना दिया.

बेटी का अपने माता-पिता से कितना नाज़ुक और संवेदनशील रिश्ता होता है. बेटियाँ बचपन से ही जानती हैं माता-पिता को खुश रखना. इसके लिए जब तक वो अपने माता-पिता के घर में रहती है, उन्हें खुश रखने के लिए हमेशा जतन करती रहती हैं. माता-पिता का घर छोड़कर अपना घर बसा लेने के बाद भी बेटी हमेशा उस घर से दिल का रिश्ता रखती है. बिटिया के जन्म से पहले ही जैसी तस्वीर मैंने अपनी बेटी के लिए अपने दिल में संजोयी थी, मुझे हूबहू वैसी ही बेटी मिली. चुलबुली....नटखट.... फिर भी समझदार और बेहद संजीदा......

रेशमा मेरे ख़्वाब में तुम उदास नहीं थी


सुबह के पाँच बजकर पचपन मिनट. एक अप्रत्याशित अनमनेपन से आँख खुली. रेशमा तुम्हें तो दुनिया छोड़े कई बरस बीत गये ,फिर आज अचानक मेरे ख़्वाब को ज़रिया बनाकर लौटना क्यों चाहा ? ज़िंदगी जैसे खूबसूरत ख़्वाब को खुद अपने हाथों से खतम करते समय तुम्हें किसका ख्याल सबसे ज्यादा आया होगा ? मैंने सुना था, जाने से पहले तुमने ढेर सारा पूजा पाठ किया था. काश कोई उस वक्त जान पाता कि तुम क्या सोच रही हो.
कहाँ जान पाते हैं हम किसी के दिल की बात ? जान ही लेते तो कुछ अचंभित करने वाले पल कैसे ज़िंदगी का हिस्सा बनते. ज़िंदगी के आखिरी पड़ाव , जो खुद एक अप्रत्याशित चीज़ हो सकती है , पर ये जानना कि आप किसी के ख्वाबों का अहम हिस्सा रहते आये हैं , सुख से मरने के अलावा क्या दे सकता होगा ? फिर इस बात के क्या मायने रह जाते हैं कि इस बीच आपने किन्हें अपने ख्वाबों में जगह दी ? फिर तो ज़िंदगी के बीते सालों की हकीकत भी ख़्वाब से कुछ कम नहीं लगती.
रेशमा , तुमने मुझे ख़्वाब में जो गाना सिखाने की गुजारिश की , वो भी कुछ उदास सा ही था. तो क्या तुम हमेशा उदास रहती आयी थी ? पर मेरे ख़्वाब में तो तुम्हारा चेहरा उदास नहीं था. एक सपनीली मुस्कान बिखेरकर तुमना कहा कि मैं तुम्हें एक गाना सिखा दूँ. पर बदले में मेरी मुस्कान नहीं दिखी होगी तुम्हें. शायद मैंने ख़्वाब में भी जान लिया कि तुम सचमुच में नहीं लौट आयी हो. तभी तो एक अनमनी उदासी से मेरी आँख खुल गयी. सोचा मैंने कि तुम्हें अब वो सुकून मिल ही जाना चाहिए जिसकी तुम हक़दार रही होगी.
चीज़ों को बहुत सहेजकर रखने का हुनर अब तुम्हें आ जाएगा कि इससे पहले तुम्हें मुहब्बत जैसी बेशकीमती चीज़ मिली ही नहीं थी. ऐतबार करना भी तो आ जाएगा तुम्हें कि तुम किसी के खूबसूरत ख़्वाबों का अहम हिस्सा हो. फिर जाने की बात न करना कि दिल डूब जाएगा मेरा.

मंगलवार, मई 03, 2011

एक आहट भी उम्मीद का एक सिरा बन जाती है

  खाली उदास सा एक दिन. कुछ ख़ास करना भी न हो और सोचने पर कोई मनाही नहीं. ऐसे में कोई अपनी सी लगने वाली आवाज़ चौंका दे तो प्यार पर यकीन करने को जी चाहता है. अजनबी से लगने वाले रास्ते एक जानी-पहचानी मंज़िल का पता दे रहे हों जैसे. एक मासूम मुलाकात.....साथ गुज़ारी हुई चंद घड़ियाँ....और झूठ-मूठ का गुस्सा.... सब दर्ज़ हो जाता है खुद-ब-खुद आँखों के आइनों में. फूल की एक आह पर बेचैन हो जाने वाला भंवरा...सागर के सीने में छुपे राज़ जानने को बेताब किनारा....और अपनी प्रेयसी को हूबहू आँखों में उतार लेने वाला उसका चाहने वाला.....सबकी मंज़िल बस प्रेम ही तो है.
    तुम इसे बखूबी समझते हो कि खाली दिन में याद कैसे - कैसे पीछा करती है. एक आहट भी उम्मीद का एक सिरा बन जाती है जिसे पूरी होने के लिए उम्र के बीस साल भी बढ़ा दिए जाएँ तो नाकाफी हैं. दिलासे किसी मरहम का सा काम करते ज़रूर हैं, पर राहत नहीं मिलती. ठंडी सीली हवा की चुभन कहाँ जा पाती है हल्की सी धूप से ? दूज के चाँद को देखकर अफ़सोस और बढ़ता ही है कि खूबसूरत चीज़ों की उम्र छोटी क्यों होती है ? पर तुमने हर नामुमकिन सी ख्वाहिश को पूरा करके सारे अफ़सोस कम कर दिए हैं.
  उम्र कुछ इस अंदाज़ से ठहरी सी थी मानो उसका लौट कर पीछे जाने का मन हो रहा हो. पर वक़्त आगे ही आगे....निरंतर...अपनी रफ़्तार से. जैसे तेज़ बहाव में रुका हुआ कोई खूबसूरत मंज़र. कुछ ऐसे मंज़र होते हैं जो दूर से बहुत प्यारे लगते हैं और कुछ को सिर्फ नज़दीक से ही महसूस किया जा सकता है. पर एक खाली -खाली से लम्हे में याद आने वाले मंज़र आंखों के रास्ते दिल में बस चुके होते हैं. ऐसे ही कुछ मंज़र आज बेइंतहाँ याद आये जिन्होंने एक लम्बा सफ़र तय किया यहाँ तक पहुँचने के लिए.