शुक्रवार, दिसंबर 30, 2011

प्रेम का ये भी एक रूप होता है

 मुझे इस साल के बीत जाने से हमेशा एक डर सा लगा रहता था. ऐसा लगता था कि ये साल जब नया-नया आया था तो तुम्हें साथ लाया था पर जब ये जायेगा तो तुम्हें साथ ना ले जाये और देखो मेरा डर एक दम सही था...ये जाते-जाते तुम्हें भी ले गया...मुझसे दूर...

यूं  ही बातों-बातों में सब कुछ बीत जाता है और हम किसी नए इत्तिफ़ाक का बस इंतज़ार करते रह जाते हैं. साल शुरू हुआ था कि एक नयी बहार ने दस्तक दी, पता नहीं किसकी दुआओं का असर था ये. एक खोयी खुशी मेरा पता पूछकर मेरे पास चली आयी और यकीन दिलाती रही कि वो अब कभी वापस नहीं जायेगी. मैंने उसके हाथों को थामा और अपने होठों से उसे छुआ...मेरी आँखों से आंसुओ की कुछ बूंदें उन हाथों पर गिर गयी....दो पल के लिए वो हाथ कांपे और फिर उन्होंने मेरा चेहरा ऊपर उठाया.....मैंने उसकी गीली पलकें देखीं और जाना कि प्रेम का ये भी एक रूप होता है. मैंने जब भी जादू की छड़ी घुमाई वो खुशी मेरा मनचाहा रूप लेकर मेरे सामने हाज़िर हो गयी. 

जादू ही था वो कि बस खत्म हो गया सब कुछ. मुझे लगता है कि तुमने ज़रूर आवाज़ दी होगी, पर वक्त ऐसा चुना होगा कि मुझ तक पहुँची नहीं. वैसे भी कोहरा घना हो तो वक्त का सच छुप ही जाता है... और फिर इस वक्त का सच तो ये कोहरा है... और मैं, बस इसमें खो जाना चाहती हूँ.

वो एक सपना था जिसे मैंने ही अपनी आँखें मल-मल कर तोड़ा था. क्या तुम इस वक्त जान पाओगे कि कोई तुम्हारे बारे में सोच रहा है? क्या हम ठीक उसी वक्त ये जान पाते हैं कि कोई हमारी राह देख रहा होता है? क्या तुम्हें ठीक इसी वक्त मेरी आवाज़ सुनाई दे रही है? तब तो तुमने ज़रूर चौंककर इधर-उधर देखा होगा. बीच सपने में ही तुम्हें किसने बुला लिया कि तुम चले गये? क्या ऐसा हो सकता है कि हम दोनों एक ही वक्त पर एक दूसरे को पुकारें और फिर से एक-दूसरे का हाथ थाम लें?
                  
                           ***                             ***                            ***

साल  बीतने को है उम्मीद अभी बीती नहीं है... जिस रास्ते से वो खुशी बीते साल आयी थी वो रास्ता अभी वहीं खड़ा है... सर्द शामों के साथ कोहरा भी जाता रहेगा कि खुशी से कहना मेरे घर का पता भी बदला नहीं है...



गुरुवार, दिसंबर 08, 2011

दोस्त, जी बहुत उदास है उस दिन से....

एक ही दिन में कई हैरानी भारी बातें एक-एक करके गुज़रती गयीं और वो दिन भी बीत ही गया और दिनों की तरह. ऐसा लगता था कि जैसे एक ही दिन में कई दिन जी लिए. वो शुरू तो कुछ आम दिनों की तरह ही हुआ था पर ज्यों-ज्यों दिन पर सूरज का रंग चढ़ता गया मुझ पर से कई रंग उतरते गये.

माँ पर कुछ भी बुरा बीते ये नागवार गुज़रता ही है . उनके जीवन भर की अमूल्य निधि , उनका स्त्रीधन यानि उनके सोने के गहने एक यात्रा के दौरान यकायक ही खो गये. माँ बहुत बड़े दिल वाली और प्रेक्टिकल परसन हैं फिर भी उनका अपार दुःख फोन पर उनकी कंपकंपाती आवाज़ में साफ़ झलक रहा था. खबर सुनते ही मैंने अपना दिल डूबता हुआ सा महसूस किया, फिर भी अपनी आवाज़ पर संयम रखते हुए मैंने उन्हें ढाढस बँधाया. 

सच पूछो तो वो घटना बताने के बाद मेरी माँ इस बात से ज्यादा चिन्तित थीं कि उनकी चिंता में कहीं मेरी नींद न उड़ जाये. खैर, हम काफ़ी देर इस घटना की अनेकानेक संभावनाओं पर बात करते रहे. ये बात भी कि जिसने भी ऐसा किया होगा क्यूँ किया होगा, हालाँकि हम दोनों ही ये जान रहे थे कि अब इन बातों के कोई मायने नहीं हैं. मैंने अपनी प्रार्थनाओं में ये कहा कि माँ को उनकी निधि किसी तरह वापस मिल जाये जब कि मैं जानती हूँ ये उस निधि के खो जाने से भी ज्यादा आश्चर्यजनक घटना होगी.

फोन रखने के बाद मैं बेहद उदास हो गयी. मुझे माँ के लिए बहुत बुरा लग रहा था. पर अभी दिन खत्म नहीं हुआ था. मुझे लगा किसी दोस्त से बात करके जी हल्का कर लूँ , ये कहाँ पता था कि दिन और भी बुरा होने जा रहा है. इस से पहले कि मैं ये घटना बताकर अपना जी हल्का करती, उस दोस्त ने कुछ ऐसी कड़वी बात कही कि जी और भी उदास हो गया. जिन्हें हम अपना बहुत करीबी दोस्त समझ रहे होते हैं, वो अगर एक दिन ये ऐलान कर दें कि वो हमारी दोस्ती की नौका में से कब के उतर चुके हैं, बिना कोई आहट किये, तो शक होने लगता है कि दोस्ती थी भी या नहीं. मुझे लगा कि मुझे इसका कारण पूछना चाहिए, सो मैंने पूछ ही डाला, पर मुझे लगा कि बस अभी मेरा ही समय बुरा चल रहा है. शायद कोई-कोई दिन ही इतना बुरा होता है कि सब कुछ अप्रत्याशित ही घट रहा होता है.

मुझे हर बात पर बड़ी जल्दी रोना आ जाता है , पता नहीं क्यूँ उस दिन एक भी आँसू नहीं टपका. मैंने कहीं सुन रखा है कि हर घटना हमारे लिए हर लिहाज़ से अच्छी ही होती है क्यों कि अच्छी घटनाएँ अच्छे पल देती हैं और बुरी घटनाएँ अच्छे सबक. पता नहीं ये मेरे लिए अच्छे पल थे या अच्छे सबक.....पर ये दिन बहुत कुछ दे गया. 

                            * * *                                * * *

अच्छे दिन और अच्छे सबक दोनों ही अच्छे दोस्त की कमी को पूरा कहाँ कर पाते हैं....दोस्त, जी बहुत उदास है उस दिन से....

मंगलवार, नवंबर 15, 2011

कितने छलावों के उस पार कोई एक सच होता है

दीवार पर लगी ढेर सारी तस्वीरों में से कुछ को एक दूसरी दीवार ने ढक लिया था, पर जो दिखाई दे रही थीं उनसे उस घर की खुशहाली का अंदाज़ा बखूबी लगाया जा सकता था. छुप गयी तस्वीरों में शायद कोई दूसरा पहलू भी छुपा हो. गुलाबी सी ठंड में भी ठंडे फर्श पर लेटकर लड़की अपने गालों पर बह रहे गर्म आंसुओं को शायद कोई राहत पहुँचाना चाह रही थी. दुबले से शरीर पर तंग पोशाक उसकी असहजता को और बढ़ा रही थी. कहीं भी राहत नहीं...उसने लेटे-लेटे ही सोचा.


कितने छलावों के उस पार कोई एक सच होता है. असहजता में ही वो फर्श छोड़कर खिड़की के पास जा खड़ी हुई तब उसे अंदाज़ा हुआ कि वो इस समय पहली मंज़िल पर खड़ी है, जहाँ से छिछले पानी से भरा हुआ कुंड दिखाई दे रहा है...दूर कहीं से चार-पाँच सुन्दर लड़कियां उसी की तरह की भारी पोशाकों में सहजता से दौड़ती हुई आती दिखाई दीं...जो दोनों हाथों से अपनी पोशाक को ज़रा ऊपर किये हुए कुंड के पानी को लांघकर उसकी तरफ बढ़ी आ रही थीं.


इस समय वह किसी का सामना करने की स्थिति में नहीं है...उनका तो बिल्कुल भी नहीं जो उसकी आँखे देखकर उसके दिल का हाल पढ़ लेते हैं...लड़की ने छुप जाने के लिए एक अकेला सुनसान कोना ढूंढ लिया. जब कोई आवाज़ देगा तब ही सोचा जायेगा.बचपन में खेला गया खेल 'हाइड एंड सीक' याद आ गया और वो बेफिक्री भी, जो तब हुआ करती थी. अब जिनसे छुपना था, वो लोग उसे कभी न ढूंढ पायें ऐसा उसने सोचा. एक बार उसे ये ख्याल भी आया कि अपने सब ख्यालों का गला घोंट दे. इसी सुनसान कोने में अपने चारों ओर एक ऐसी दीवार खड़ी कर ले कि वहाँ से हवा का आवागमन भी बंद हो जाये...


इन सारे ख्यालों की वजह वो ही तो है...जो छलावों के उस पार का सच है...

         ***                                   ***                               ***
        
अब सब बदलना चाहिए. उसे प्यार करते  रहने की आदत...उसे याद करते रहने की आदत...और फिर रंगीनियों में भी उदास रहने की आदत...

इस  बार जब मौसम बदलेगा , आँसुओं की गरमाहट गालों पर नहीं , महबूब के होठों पर धर दी जायेगी...

मंगलवार, नवंबर 08, 2011

अपनी आत्मा के बारे में ही सबसे ज्यादा सोचना चाहिए


अपने हिस्से का आसमां चुराते-चुराते नादान शाम न जाने कब पूरा आसमां पाने की फ़िराक में रहने लगी. शायद उसे इस बात का गुमां न रहा कि आसमां  के पास खुश होने की और भी वजहें हैं. यूँ एक दिन आसमां जब उसके आगोश में सिमट आया तो शाम अपने चाहने वालों से भी जी चुराने लगी. क्षितिज पर हुई इस मुलाकात के बाद आसमां ने अपनी रात चाँद-तारों के साथ बिताई और वो अँधेरे और रोशनी के इस खेल से खुश था. सुबह के खिलते सूरज को भी तो उसने अपनी खुशी की वजह बताया.


         शाम के आस-पास सुखद रंगों, ध्वनियों,प्रकाश और गतियों का जादू सा था. वह सिर्फ तभी नहीं नाचती थी जब उसकी आत्मा बहुत थकन महसूस करती थी या आराम करना चाहती थी. अब अचानक उसने आसमां को एक बिल्कुल नए और अप्रत्याशित रूप में देखा. ऊब पैदा करने वाले रूप के साथ नाचना संभव नहीं था इसलिए उसकी आत्मा ने आराम की इजाज़त माँगी.


            इस अप्रिय और अटपटी सी बात के बाद शाम कुछ उदास सी रहने लगी. आसमां से वो केवल एक बात के लिए मिन्नत करती है कि उसे इस असह्य स्थिति से उबार लिया जाये जिसमें वह इस समय है. शाम का ह्रदय हताशा से फटा जा रहा है और उदासीन और शांत चेहरे के साथ वो चुपचाप आतंरिक संघर्ष कर रही है. ये वही शाम है जिसे आसमां ने अपना प्यार भेंट किया है और बदले में प्यार ही पाया है. अपने आस-पास प्रकृति की उदासी में डूबे होने के बावजूद शाम के मन में आसमां से मिलने की उमंग है. बात साफ़ है कि शाम ने कहीं सुन रखा था अपनी आत्मा के बारे में ही सबसे ज्यादा सोचना चाहिए.

शनिवार, अक्तूबर 15, 2011

जिसके बिना जिया न जा सके

कोई आठ-दस सीढ़ियाँ नीचे उतरकर दाहिनी ओर एक मंदिर का गर्भगृह था वो. उस मंदिर का मुख्यद्वार जो कुछ असमान आकार के दो पटों से मिलकर बना था, बंद लग रहा था. उसने उस दरवाज़े के छोटे वाले पट को धीरे से धकेला तो वो खुल गया. चार-पाँच सीढ़ियाँ नीचे उतरते ही अन्दर से एक दाढ़ी वाले व्यक्ति आते दिखाई दिये जो संभवतः इस मंदिर के पुजारी थे. मंदिर के गर्भगृह से सुगन्धित धुंआं उठ रहा था जो किसी हवन के धुंएं जैसा प्रतीत होता था. पुजारी ने उसे अन्दर बुलाना चाहा पर वहाँ के माहौल में कुछ अटपटापन भांपकर उसे मंदिर के अन्दर जाने का मन नहीं हुआ. एक पल और सोचने के बाद उसने मंदिर से बाहर आना ही उचित समझा. उसने पुजारी से बहाना किया कि बाहर कोई इंतज़ार कर रहा है इसलिए अभी वापस जाना ज़रूरी है. दरवाज़े के उस छोटे पट को बंद करके बाहर की हवा में पैर रखते ही उसने राहत की साँस ली.

बाहर कोई नहीं था जो उसका इंतज़ार करता. मंदिर के बाहर मैदान में इक्का-दुक्का बेंचें लगी थीं उसने दो पल वहाँ बैठना चाहा. एक बेंच पर ज़रा छाँव थी , उसी को उसने अपने बैठने के लिए चुना.

 उसे याद आया कि जब-जब उसने कोई सपना देखा, तब चारों ओर पानी ही पानी हुआ करता था और चंद सीढ़ियाँ, जिनसे चढ़कर केवल ऊपर की ओर जाया जा सकता था. नीचे आने के समय वो सीढ़ियाँ वहाँ से गुम हो जाया करती थीं, उसने हमेशा बस एक पुल पर खुद को अकेले खड़े पाया, पता नहीं किसका इंतज़ार करते हुए.... उसे कभी कोई वहाँ आता नहीं दिखाई दिया, न ही कोई वहाँ से जाता था.

दूर कहीं से एक रेलगाड़ी की आवाज़ सुनाई दी. इस आवाज़ को सुनकर उसे अपना बचपन ज़रूर याद आता था. बचपन में जब भी रेलगाड़ी का सफ़र करते और वो किसी पुल के ऊपर से गुज़रती थी पुल के नीचे का पानी उसके मन में एक झुरझुरी पैदा कर देता था. उसने बचपन के ख्यालों को दूर धकेला और वापस उसी जगह लौटना चाहा. 

उसकी कहानी का कोई नायक नहीं था, ऐसा उसे लगा. कोई प्रतिद्वंदी भी नहीं. बस वो खुद और उसका अकेलापन.... जिसने भी उससे प्यार किया जी भर कर किया, पर उसे कभी कोई ऐसा नहीं मिला जिसके बिना जिया न जा सके और उसे हमेशा उसी एक की तलाश थी. आज फिर उसे ऐसा ही महसूस हो रहा है, जैसे वो किसी ऐसे पुल के ऊपर है जिससे नीचे जाने का कोई रास्ता नहीं है. चारों ओर बस पानी ही पानी है. दूर पश्चिम में डूबता हुआ सूरज भी उसी की तरह किसी का इंतज़ार करते-करते थक कर वापस जा रहा है....

शनिवार, सितंबर 10, 2011

हो सकता है कि मैं भूल भी जाऊं.....

हो सकता है कि मैं भूल भी जाऊं पर अब तक तो सब याद है कि किस तरह दूर कहीं से एक भीगा हुआ खत मेरे  पहलू में आ गिरा था. शायद वो किसी के आंसुओं से भीगा था. मैंने खत को उलट-पलट कर देखा पर कुछ समझ में नहीं आया. बस यूं ही रख दिया, पर उसके बाद कुछ दिन एक बेचैनी ने घेर लिया था मुझे. फिर उसे खोलकर पढ़ ही लिया. कुछ जाना-पहचाना सा लगा मगर याद नहीं आया कि उससे मेरा रिश्ता क्या था.

मैंने  जानने की थोड़ी-बहुत कोशिश की तो मालूम हुआ, किसी बिछड़े हुए ने किसी अपने को याद किया था. वो अपना, जिससे कुल मिलाकर उसने एक ही मुलाकात की थी. पता नहीं क्या कसक बची होगी उस घड़ी दो घड़ी की मुलाकात में, जो उसे भुला नहीं पाया होगा. कई पुरानी बातें, कई यादें, जो कभी किये नहीं वो वादे उस खत का मजमून बनते गये. वो भीगा हुआ सा खत एक भीनी महक लिए हुए चौबीस घड़ी साँस लेने का सबब बन  गया. अब वो आंसुओ से भीगा हुआ नहीं बल्कि प्यार की बारिश में नहाया हुआ मालूम होता था.

पयाम भेजने के साथ-साथ एक मुकम्मल पता भी ज़रूर लिखा होगा भेजने वाले ने, पर कमबख्त बारिशों की फ़ितरत ही कुछ ऐसी होती है कि वो अपने साथ में अक्सर आँसू ही नहीं, और भी बहुत कुछ ले बीतती हैं. वो पयाम किसके नाम से भेजा गया था ये मालूम न था पर जब मैंने उसे अपना जान कर जी लिया तब मालूम हुआ कि वो गलत पते पर आया हुआ खत था. उदासियाँ उसका पता थीं और मेरा पता उन उदास तंग गलियों में नहीं था. पर अब जब भी बारिश मेरे आंसुओं को अपने आँचल में सजा लेती है वो भीगा हुआ सा खत बस यूं ही याद आ जाता है कि अभी उसकी महक भी ज़हन में ताज़ा है....

मंगलवार, अगस्त 16, 2011

सब कुछ सो जाने पर भी ज़हन में कुछ है, जो जागता रहता है......

आधी रात को आँख खुलते ही ये एहसास हुआ कि जैसे बची हुई ज़िंदगी के चंद आखिरी लम्हे गुज़ारने बाकी हों बस. याद नहीं, आखिरी बार कब सुकून से नींद आयी थी. जाने क्यूँ बीता हुआ बचपन,याद आने लगा...दोपहरी में माँ-पापा के सो जाने के बाद, भाई-बहन के साथ चोरी-चोरी खेलना और फिर माँ-पापा की डांट. लौट आया फिर से ज़हन में छुक-छुक गाड़ी का लंबा सफ़र, जो कभी-कभी उबाऊ हो जाता था, जब खिड़की के पास वाली सीट नहीं मिलती थी. बीता हुआ कल इतनी जल्दी अपनी शक्ल बदल लेगा ये सोचा नहीं था. हाँ, बचपन अभी कल परसों की ही तो बात लगती है.

मैंने चाँद को लाने की ज़िद कभी की हो, ये तो याद नहीं, पर तितलियों से भी जी नहीं बहलता था. पता नहीं किस चीज़ की, पर कोई तलाश तो थी हमेशा से. रात में सब के सो जाने के बाद कविताओं के ज़रिये खुद को तलाशना टीनएज की आदत बनी. फिर कभी एक अच्छा दिन बीत जाये तो ज़िंदगी से प्यार हो जाता और एक बुरे से दिन के बाद सारा गुस्सा भी इस ज़िंदगी पर ही उतरता था.

आदतें कहाँ जाती हैं ? वो चाहे चीज़ों की पड़ जायें या फिर लोगों की, कुछ भी छूटता कहाँ है ? बस थोड़ा सा पीछे रह जाता है. आज भी ये आदत पीछा नहीं छोड़ती कि सब कुछ सो जाने पर भी ज़हन में कुछ है, जो जागता रहता है. कभी बचपन के खेल और भाई-बहन का प्यार, कभी टीनएज के दोस्त और उनके लिए कुछ भी कर गुज़रने की चाहत और फिर कभी-कभी खोया हुआ सा कोई लम्हा.... कभी- कभी ये सब सपनों की शक्ल लेकर जागता  है तो कभी गुमखयाली वजूद का एक अहम हिस्सा बन जाती है...

सुकून  की नींद अब शायद क़यामत के दिन ही नसीब होगी.....

मंगलवार, जुलाई 19, 2011

तुम भी तो बस लम्हों के लिए ही मिलती हो ना.....

मैंने तुमसे बात करके हमेशा खुशी ही महसूस की है....सुनो, तुम मुझे खुश क्यूँ नहीं लगते....कहो ना, तुम्हें किस चीज़ की तलाश है....अरे, अब तुम ऐसे क्यूँ देख रहे हो? मेरी आँखों में तुम्हारा कुछ खो गया है क्या?

कुछ मिला ही कहाँ है अब तक....तुम भी तो बस लम्हों के लिए ही मिलती हो ना? ऐसे मिलने से तकलीफ़ और भी बढ़ती है....मैं अब थक गया हूँ इस तरह....मैं तुम्हें पूरी तरह अपने पास चाहता हूँ....

कुछ भी पूरा कहाँ होता है...सब कुछ अधूरा सा ही तो है....हम सब कुछ ना कुछ पूरा करने की तलाश में ही तो हैं....क्यों कि हमें ऐसा लगता है कि पूर्णता में ही खूबसूरती है....पर सच तो ये है कि कोई भी तलाश पूरी होते ही अपनी खूबसूरती खो देती है....खूबसूरती सिर्फ़ उस कसक में है जो किसी चीज़ को पूरी तरह से पाने की ओर ले जा रही  है....यूँ ख़्वाब भी कितने हसीन होते हैं.... छोड़ो ना, अब जाने भी दो....अच्छा एक बात कहो, तुम अब दोबारा कब मिलोगे मुझसे?

मैं हमेशा तुम्हारे पास ही तो हूँ...एक लम्हे को भी तुमसे, तुम्हारे ख्याल से अलग कहाँ हो पाता हूँ....हाँ, एक बात और....तुमने शायद पूरे होने को महसूस ही ना किया हो इसलिए ये तसल्ली दे रही हो मुझे....पूर्णता को जिया है कभी?

नहीं....जीना चाहती भी नहीं...

क्यों? डर लगता है प्रेम में पड़ने से? जानती हो, जिस तरह हमारा मिलना डेस्टिनी नहीं था उसी तरह हमारा अंत भी डेस्टिनी नहीं है....इस शुरुआत और अंत के बीच का जो सफ़र है ना उसमें प्रेम करना है....पूरी तरह से....

हमारा मिलना डेस्टिनी नहीं है ना? हमने एक दूसरे को तलाश किया और मिल भी गये....ये होना तय था और हो गया.....हम फिर मिलेंगे तुम तलाश करना मुझे जैसे इस बार किया था....सब छोड़कर.....खाली होकर मुझसे मिलना....और हाँ ,ये मत भूलना कि मैं तुम्हें बेहद चाहती हूँ....


गुरुवार, जून 30, 2011

वादा

"सुनो, मैंने कुछ तय किया है."........"अब मैं बाकी सब चेहरे भूल जाना चाहता हूँ."......इस बात का ठीक-ठीक मतलब समझना मुश्किल था उस वक्त. पर अब कुछ-कुछ समझ में आ रहा है. कोशिश ही कहाँ की थी कुछ भी समझने या जानने की और सच तो ये है कि इस बात का कोई अफ़सोस भी नहीं होता. एक अरसे बाद मिले थे फिर ऐसी फ़िज़ूल बातों के लिए वक्त ही कहाँ था.

मौसम को अपने रंग में ढालना हो या फिर कोई शायरी कहनी हो, कोई बात उसके बगैर पूरी नहीं होती थी. हर तरफ एक ही ख्याल....हाँ, अब उसे खुद अपनी ही खबर नहीं थी. "मैं तुम्हें एक बार छू कर देखूँ तो यकीं हो कि तुम हो..." ऐसा एक बार बेखयाली में कहा था उसने.... उस दिन से लगने लगा कि शायद ये एक ख़्वाब है.....इसके बाद वे दोनों आगे बढ़े, फिर रुके. 

"तुम मेरे साथ चलोगी ?" ऐसा ही कुछ उसने कहा था एक दिन. आस-पास के शोर से एकदम अलग लगी थी उसकी आवाज़. एक ठहराव, फिर भी एक शोखी थी उसकी आवाज़ में, जो उसे बहुत पसंद थी. क्या सब कुछ वैसा ही होता है जैसा दिखाई देता है?

धीरे-धीरे उसकी बातों के मायने समझ में आने लगे. उसे प्यार तो बहुत था पर बहुतों से था. एक बात और कही थी उसने कि क्या बहुतों को प्यार करने से तुम्हारे हिस्से का प्यार कम हो जाता है? नहीं...शायद नहीं.....प्यार कैसे कम हो सकता है.....बस कुछ दरक सा गया उस दिन के बाद.

रविवार, जून 12, 2011

तुम्हारे सतरंगी वजूद के एक रंग से मुझे बेहद प्यार है

इस कायनात का हर एक शख्स एक दूसरे से एक दम जुदा और हर एक शख्स में कई जुदा-जुदा शख्सियतों का वजूद. सच कहूँ, तुम्हारे सतरंगी वजूद के एक रंग से मुझे बेहद प्यार है. वो रंग, जो मुझमें खुद-ब-खुद घुलता जाता है और मुझे कभी खुद से जुदा नहीं होने देना चाहता. इसकी भीगी सी खुश्बू को मैंने गुनगुनी धूप में भी संजोकर रखा है कि तमाम उम्र इसी मदहोशी में गुजरने पाए.
   खुले आँगन में बैठकर उस दिन तुमने एक बात कही थी कि इन दिनों तुम बेहद खुश हो, बिना वजह. मुझे भी तो नन्ही बिटिया की आवाज़ कोयल सरीखी लगा करती है आजकल. यूँ बेवजह खुश होने का मतलब नहीं जानना है मुझे. बस इन खुशियों की उम्र में इज़ाफा होने की दुआ खुद मैंने अर्श पर जाकर मांगी है और प्यार करने वालों की दुआओं में यकीनन असर होता है.
     कई उदास सफ़र अकेले तय कर लिए इन रास्तों ने. हाँ, मेरी आँखों का रंग कहाँ देखा था तुमने उस दिन? उन्हें एक रास्ता भर कह दिया था मेरे दिल तक पहुँचने का. और फिर मेरे मुस्कुराते ही तुम्हारी रुलाई छूट गयी थी. शायद तुम्हें इस अफ़सोस ने घेर लिया कि दो अकेले उदास सफ़र साथ-साथ कटने पाते तो कितने खुशनुमा होते.
   एक पूरी उम्र अभी बाकी है मेरे दोस्त. अगर एक अप्रत्याशित तरीके से मेरी आवाज़ तुम्हे चौंका दे, तो सोचा है कभी कि तुम खुश होओगे या कि उदास ? एक ख्वाहिश है मेरी कि उस दिन बस मेरी पसंद के उस रंग को मुझमे घुलने देना.

गुरुवार, जून 02, 2011

साज़-ए-दिल की अफ़्सुर्दगी पे रोना आया

साज़ की उलझी तारों ने इक दिन अनमना सुर छेड़कर साजिन्दे से पूछा कि तुम मुझे कितना प्यार करते हो और कब तक करते रहोगे ? साजिंदा उसके सवाल पर थोड़ा दुखी और कुछ हैरान होता हुआ बोला,"तुमने ये सवाल उस वक्त क्यों नहीं पूछा जब मैं तुम पर सृष्टि के महान गीत की रचना करना चाहता था ?"

साज़ खामोश हो गया. साजिन्दे ने उसकी ख़ामोशी को अपनी जादूभरी आवाज़ से तोड़ते हुए कहा,"सुनो, मैं तुम्हें दिल की गहराई से प्यार करता हूँ और हमेशा करता रहूँगा. साज़ के बेचैन सुरों ने विस्मय से पूछा,"इसका मतलब ये हुआ कि चाहे कुछ भी हो जाये तुम मुझे हमेशा प्यार करते रहोगे ?"

साजिन्दे को इतने बचकाने सुर सहेजने की आदत नहीं थी कि अब वो किन्हीं दूसरे सुरों से मुखातिब था. साज़ की आँखों में अफ़सोस के आँसू थे. साजिंदा भी उससे नाराज़ हो गया और इस पल सजाया जाने वाला गीत चुपचाप सहमकर किसी कोने में जा बैठा, आगे के मंज़र की गवाही देने को.

चाँद कुछ देर को बादल के पीछे जा छुपा और साज़ ने उदासी से कहा,"सुनो, तुम जब-जब मुझे अपने प्यार भरे अंदाज़ से छू लेते हो, मेरे बेतरतीब से तार कुछ सुलझ जाते हैं, इक मीठा सा दर्द उभरता है और मैं एक प्यार भरा गीत बनकर हवाओं में बिखर जाता हूँ. मेरे सीने में एक छोटा सा दिल है जो बार-बार इसी गीत को सुनना चाहता है. आज फिर इसी गीत को सुनने की तमन्ना मुझे तुम तक ले आयी, पर सच तो ये है की सृष्टि के महान गीत रोज़ नहीं लिखे जाते."

                             साज़-ए-दिल की अफ़्सुर्दगी पे रोना आया                              कल रात हमने हर बात का मातम मनाया

रविवार, मई 22, 2011

कुछ नए दोस्तों ने जीने की वजहें दीं


अपने ऑपरेशन के बाद ये मेरी पहली यात्रा थी जो बेहद असमंजस और उलझन में तय हुई थी. असमंजस इस बात का कि ऑपरेशन के बाद मेरे आराम के लिए जो अवधि डॉक्टर ने तय की थी वो अभी पूरी नहीं हुई थी, ऐसे में यात्रा के दौरान कोई मुश्किल न खड़ी हो जाये ऐसा डर था और उलझनें तो बस मन की ही बनाई हुई थीं. जब अपने आप को हर तरह से घिरा हुआ और परेशान पाती हूँ तब सबसे ज्यादा माँ को ही याद करती हूँ. मुझे यकीन है कि माँ को कह देने मात्र से मेरी सभी उलझनों का हल खुद-ब-खुद निकल आता है. पता नहीं उनकी दुआओं का असर कैसा होता है कि कई बार बिना कहे भी वो मेरी परेशानियों का हल निकाल देती हैं.

लेकिन इस बार का गम ऐसा नहीं था जिसका कोई हल माँ के पास होता. मेरे अन्दर के ही एक डर ने मुझे आठों पहर घेरे रखा और मेरा अपना अस्तित्व भी एक भ्रम सा लगने लगा. अपने ही उगाये ग़मों की पोटली बांधकर मैं खुद से भागने की फ़िराक में, यात्रा की थोड़ी-बहुत मुश्किलों को पार करके माँ के पास पहुँची. पहली नज़र में ही माँ को मैंने पहले से काफ़ी कमज़ोर और थका हुआ पाया. बहुत बार ऐसा होता है कि मैं उन्हें देखकर बिना वजह ही रुआंसी हो जाती हूँ. मुझे ऐसा महसूस होता है कि पापा के देहांत के बाद पिछले पन्द्रह सालों में उनका परिवार और उनका अकेलापन दोनों ही बढ़ा है. पर अपने अन्दर साहस भी मैं उन्हीं को देखकर जुटा पाती हूँ.

दो दिन का तय जयपुर प्रवास, जो वहाँ पहुंचकर चार दिन में तब्दील हो गया, इस लिहाज से अच्छा ही रहा कि कुछ वक्त माँ के साथ अकेले में बिताने का मौका मिला. इस दौरान दो बहुत पुराने मित्रों से भी मुलाकात हुई. लोग कहते हैं कि पुराने मित्रों से जो अपनापन और प्यार मिलता है वो बाद में बने हुए मित्रों से नहीं मिलता. पर मेरा अनुभव कुछ ऐसा रहा है कि कुछ बेहद करीबी पुराने दोस्त वक्त के साथ कहीं खो गये और कुछ नए दोस्तों ने जीने की वजहें दीं. ऐसे ही एक नए दोस्त से दो मिनट की छोटी सी, मगर यादगार मुलाक़ात इसी प्रवास के दौरान हुई.

कुल मिलाकर सात-आठ दिन खुद से भागते-भागते अब फिर से खुद की ही गिरफ्त में हूँ. ज़िंदगी की गाड़ी हमेशा अपनी पटरी पर आगे बढती तो रहती है पर पीछे जाने क्या छोड़ आती है कि वहाँ से सदायें आते ही अपना रुख भूलने लगती है. शायद कुछ तयशुदा ग़मों की नियति कभी नहीं बदलती.



सोमवार, मई 09, 2011

आपको ये सरप्राइज़ कैसा लगा?

"मम्मा, आप अभी कुछ देर मेरे कमरे में मत आना." बिटिया ने कल सुबह बड़े प्यार से कहा. मैंने पूछा," क्यों, कोई खास बात?" बिटिया वहीं से बोली,"हाँ खास बात तो है ही ना. आज 'मदर्स डे' है और मैं अपनी मम्मा के लिए अपने हाथों से एक कार्ड बनाना चाहती हूँ, जो आप अभी नहीं देख सकते हो." "ठीक है जी.", कहते हुए मैं अपने दूसरे कामों में व्यस्त हो गयी. सोचती रही कि बेटियाँ कितनी प्यारी होती हैं. जिया के साथ बीते पिछले नौ सालों का एक-एक लम्हा याद करके मैं मन ही मन मुस्कुराती रही.

घंटे भर में ही एक खूबसूरत कार्ड तैयार था. जिया ने मुझे आँखें बंद करने को कहा और कार्ड को कुछ इस तरह से मेरे हाथों में रखा कि मेरी आँखें खुलते ही वो मुझे दिख जाये. मतलब ये कि जिया मेरी खुशी को हर संभव बढ़ाना ही चाह रही थी. कार्ड तो खूबसूरत होना ही था इतने प्यार से जो बना था. मैंने अपनी खुशी का इज़हार करते हुए जिया से कहा," अरे वाह, ये तो बहुत ही सुन्दर कार्ड बनाया है आपने." जिया रानी थोड़ी सी मायूस होते हुए बोली,"ये पूरा कार्ड मैंने नहीं बनाया है. मेरी ड्राइंग इतनी अच्छी कहाँ है? मैंने तो मेरी एक पुरानी किताब में से ये चित्र काटा, फिर उसमे रंग भरा और उसे एक सफ़ेद कागज़ का कार्ड बनाकर उस पर चिपका दिया." मैंने मुस्कुराते हुए उस से कहा," आपके पास तो बड़े अच्छे और नए आईडिया हैं." अब जिया ने खुश होते हुए कहा,"आप तो बस इतना बताओ मम्मा कि आपको ये सरप्राइज़ कैसा लगा?" मैंने उसे गले लगते हुए कहा," बहुत अच्छा, लेकिन आपसे थोड़ा कम अच्छा."


जिया ने कार्ड के अन्दर लिखा था," मेरी माँ मेरे लिए भगवान है." मैंने पूछा कि क्या सोचकर आपने ऐसा लिखा? जिया बोली, "कुछ अच्छा सा लिखना चाह रही थी और इससे अच्छा कुछ सूझा ही नहीं, इसलिए यही लिख दिया."

कुल मिलाकर यही कि 'मदर्स डे' पर मेरी प्यारी बिटिया ने मुझे खुश करने के लिए ढेर सारे जतन किये और मेरा दिन खूबसूरत बना दिया.

बेटी का अपने माता-पिता से कितना नाज़ुक और संवेदनशील रिश्ता होता है. बेटियाँ बचपन से ही जानती हैं माता-पिता को खुश रखना. इसके लिए जब तक वो अपने माता-पिता के घर में रहती है, उन्हें खुश रखने के लिए हमेशा जतन करती रहती हैं. माता-पिता का घर छोड़कर अपना घर बसा लेने के बाद भी बेटी हमेशा उस घर से दिल का रिश्ता रखती है. बिटिया के जन्म से पहले ही जैसी तस्वीर मैंने अपनी बेटी के लिए अपने दिल में संजोयी थी, मुझे हूबहू वैसी ही बेटी मिली. चुलबुली....नटखट.... फिर भी समझदार और बेहद संजीदा......

रेशमा मेरे ख़्वाब में तुम उदास नहीं थी


सुबह के पाँच बजकर पचपन मिनट. एक अप्रत्याशित अनमनेपन से आँख खुली. रेशमा तुम्हें तो दुनिया छोड़े कई बरस बीत गये ,फिर आज अचानक मेरे ख़्वाब को ज़रिया बनाकर लौटना क्यों चाहा ? ज़िंदगी जैसे खूबसूरत ख़्वाब को खुद अपने हाथों से खतम करते समय तुम्हें किसका ख्याल सबसे ज्यादा आया होगा ? मैंने सुना था, जाने से पहले तुमने ढेर सारा पूजा पाठ किया था. काश कोई उस वक्त जान पाता कि तुम क्या सोच रही हो.
कहाँ जान पाते हैं हम किसी के दिल की बात ? जान ही लेते तो कुछ अचंभित करने वाले पल कैसे ज़िंदगी का हिस्सा बनते. ज़िंदगी के आखिरी पड़ाव , जो खुद एक अप्रत्याशित चीज़ हो सकती है , पर ये जानना कि आप किसी के ख्वाबों का अहम हिस्सा रहते आये हैं , सुख से मरने के अलावा क्या दे सकता होगा ? फिर इस बात के क्या मायने रह जाते हैं कि इस बीच आपने किन्हें अपने ख्वाबों में जगह दी ? फिर तो ज़िंदगी के बीते सालों की हकीकत भी ख़्वाब से कुछ कम नहीं लगती.
रेशमा , तुमने मुझे ख़्वाब में जो गाना सिखाने की गुजारिश की , वो भी कुछ उदास सा ही था. तो क्या तुम हमेशा उदास रहती आयी थी ? पर मेरे ख़्वाब में तो तुम्हारा चेहरा उदास नहीं था. एक सपनीली मुस्कान बिखेरकर तुमना कहा कि मैं तुम्हें एक गाना सिखा दूँ. पर बदले में मेरी मुस्कान नहीं दिखी होगी तुम्हें. शायद मैंने ख़्वाब में भी जान लिया कि तुम सचमुच में नहीं लौट आयी हो. तभी तो एक अनमनी उदासी से मेरी आँख खुल गयी. सोचा मैंने कि तुम्हें अब वो सुकून मिल ही जाना चाहिए जिसकी तुम हक़दार रही होगी.
चीज़ों को बहुत सहेजकर रखने का हुनर अब तुम्हें आ जाएगा कि इससे पहले तुम्हें मुहब्बत जैसी बेशकीमती चीज़ मिली ही नहीं थी. ऐतबार करना भी तो आ जाएगा तुम्हें कि तुम किसी के खूबसूरत ख़्वाबों का अहम हिस्सा हो. फिर जाने की बात न करना कि दिल डूब जाएगा मेरा.

मंगलवार, मई 03, 2011

एक आहट भी उम्मीद का एक सिरा बन जाती है

  खाली उदास सा एक दिन. कुछ ख़ास करना भी न हो और सोचने पर कोई मनाही नहीं. ऐसे में कोई अपनी सी लगने वाली आवाज़ चौंका दे तो प्यार पर यकीन करने को जी चाहता है. अजनबी से लगने वाले रास्ते एक जानी-पहचानी मंज़िल का पता दे रहे हों जैसे. एक मासूम मुलाकात.....साथ गुज़ारी हुई चंद घड़ियाँ....और झूठ-मूठ का गुस्सा.... सब दर्ज़ हो जाता है खुद-ब-खुद आँखों के आइनों में. फूल की एक आह पर बेचैन हो जाने वाला भंवरा...सागर के सीने में छुपे राज़ जानने को बेताब किनारा....और अपनी प्रेयसी को हूबहू आँखों में उतार लेने वाला उसका चाहने वाला.....सबकी मंज़िल बस प्रेम ही तो है.
    तुम इसे बखूबी समझते हो कि खाली दिन में याद कैसे - कैसे पीछा करती है. एक आहट भी उम्मीद का एक सिरा बन जाती है जिसे पूरी होने के लिए उम्र के बीस साल भी बढ़ा दिए जाएँ तो नाकाफी हैं. दिलासे किसी मरहम का सा काम करते ज़रूर हैं, पर राहत नहीं मिलती. ठंडी सीली हवा की चुभन कहाँ जा पाती है हल्की सी धूप से ? दूज के चाँद को देखकर अफ़सोस और बढ़ता ही है कि खूबसूरत चीज़ों की उम्र छोटी क्यों होती है ? पर तुमने हर नामुमकिन सी ख्वाहिश को पूरा करके सारे अफ़सोस कम कर दिए हैं.
  उम्र कुछ इस अंदाज़ से ठहरी सी थी मानो उसका लौट कर पीछे जाने का मन हो रहा हो. पर वक़्त आगे ही आगे....निरंतर...अपनी रफ़्तार से. जैसे तेज़ बहाव में रुका हुआ कोई खूबसूरत मंज़र. कुछ ऐसे मंज़र होते हैं जो दूर से बहुत प्यारे लगते हैं और कुछ को सिर्फ नज़दीक से ही महसूस किया जा सकता है. पर एक खाली -खाली से लम्हे में याद आने वाले मंज़र आंखों के रास्ते दिल में बस चुके होते हैं. ऐसे ही कुछ मंज़र आज बेइंतहाँ याद आये जिन्होंने एक लम्बा सफ़र तय किया यहाँ तक पहुँचने के लिए.

शनिवार, अप्रैल 30, 2011

मुहब्बत की बची हुई साँसों का हिसाब

वो कहानियों और किस्सों में जान डालता रहा और मुहब्बत की बची हुई साँसों का हिसाब मेरे हिस्से में आ गया. उसकी कोशिशें शायद रंग ले भी आयें पर इन आखिरी साँसों का हासिल कुछ भी न होगा. ये आईने हैं ज़िंदगी के जो टूट कर कितने ही चेहरे दिखा जाते हैं, कुछ साबुत और कुछ एक दम ज़ार-ज़ार. हाँ, मैंने उन चेहरों को पढ़ने की कोशिश में जिंदगी को अपने लिए बेहद मुश्किल बना लिया है.

दुःख की बंजर ज़मीन को आंसुओं से सींचकर कुछ कैक्टस उगाए कि कभी-कभी उसपर उग आने वाले छोटे-छोटे फूल वीरानियों को कुछ कम कर जाते हैं. पर सच तो ये है कि कैक्टस पर उग आये कांटो ने रेशमी दामन को हमेशा छलनी ही किया है और छलनी हुए दामन से आँसू नहीं पोंछे जाते.

बीती  रात ऐसे ही कुछ काँटे बिस्तर पर भी उग आये और जागती आँखों में एक सवाल भी जागता रहा जो एक दिन मैंने तुमसे पूछा था कि हमारे मिलने का सबब क्या है? तुमने कहा था, "वही, जो ज़िंदगी जीने का है."

आज, जब मुझे ये लग रहा है कि ज़िंदगी बेसबब है तो ये डर भी लग रहा है कि क्या हमारा मिलना भी यूँ ही बेसबब था? काँटों की चुभन से जो खून के आँसू रिस रहे हैं उनका मरहम भी नहीं है मेरे पास.



गुरुवार, अप्रैल 28, 2011

कुछ इत्तिफ़ाक खतों की तरह हसीन होते हैं

कुछ इत्तिफ़ाक खतों की तरह हसीन होते हैं और उनके मजमून किसी ख़्वाब जैसे अनजाने और अप्रत्याशित.....मसलन, एक लम्बी वीरानी के बाद खुद चाँद धरती पर उतर आये और अपनी सारी चांदनी को लुटा देने का हौसला दिखा दे. वीरान ख्वाबों की बंजर ज़मीन पर रूहानी प्यार का मौसम दस्तक दे रहा है कि तुम अब मेरे ख्वाबों का ही नहीं, ज़िंदगी का भी अहम हिस्सा हो.

             मैंने हर ख़्वाब में तुमसे ये गुज़ारिश की है कि तुम मेरे खतों में वो सब पढ़ना, जो लिखा नहीं है. कि नदी ने अब अपना रुख बंजर ज़मीन की ओर कर लिया है.....आवारा हवाओं ने सारे फूलों की खुशबू समेट ली है इस कायनात में लुटाने को.....सारे साज़ बज उठे हैं अपना मधुर संगीत बिखेर देने को, गोया इन्हें अपनी मंजिल मिल गयी हो.

             इस बेलगाम भागती ज़िंदगी में तुम्हारा मिल जाना भी तो किसी इत्तिफ़ाक से कम नहीं ना ? मैंने हमेशा तुम्हारे कहे शब्दों को एक जीवित एहसास की तरह जी भरकर जिया और महसूस किया है. शब्दों के एक-एक घूँट को हलक से उतारते हुए मुझे हमेशा सुकून का एहसास हुआ. इस जादू में खोकर बाकी सब छोटा और झूठा लगने लगा है.

            'टेलीपेथी' के बारे में तो सुना होगा तुमने ? ये मानसिक संदेश वो जादू है कि अगर इन्हें भेजने वाला इंसान इसे भेजना चाहता हो और ग्रहण करने वाला इंसान इन्हें ग्रहण करना चाहता हो तो मीलों की दूरी भी कोई मायने नहीं रखती. इसे किसी ज़रिये की भी ज़रूरत नहीं होती. इसलिए जब दिल करे जी भरकर याद करना दोस्त, उसे जिसे तुम चाहते हो अपने पास देखना,साथ-साथ देखना.