सोमवार, अक्तूबर 08, 2012

रूह बसती है इश्क करने वालों की आँखों ही में कहीं...

उसे जिससे वफ़ा की उम्मीद थी उसने उसे बेवफाई के लायक भी नहीं समझा.... वो बस एक ही साँस में अपनी बात कहे जा रही थी, इस उम्मीद से कि कोई ऐसा जवाब आएगा जो उसे खुश कर देगा....अचानक उसने महसूस किया कि उसे सुनने वाला जड़ हो गया है...कोई सवाल-जवाब नहीं....बस एक ख़ामोशी...चुभने वाली ख़ामोशी...

उसे लगा उनके बीच अब लड़ाई-झगड़े जैसा कुछ हुए एक अरसा बीत गया है...और प्यार जैसा कुछ हुए उससे भी लंबा अरसा...वो बुझ गयी, उदास हो गयी...

उस जैसा नहीं था उसका महबूब...पर उससे कुछ ज़्यादा अलग भी नहीं लगता था...पर अब वो बदल गया था...किसी और का भी नहीं हुआ...बस खुद अपना हो गया था...उसे खुद के सिवाय कुछ दिखाई नहीं देता था...एक नशा सा उस पर सवार रहता था...इस बीच वो भूल चुका था कि वो कितनी अकेली हो गयी थी उसके बगैर...

ना...कुछ भी नहीं बदलता प्यार करने वालों के लिए...बस उन लोगों की फ़ितरत बदल जाती है जिन्हें प्यार किया जाता है...

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वो एक अबोली आँखों वाली लड़की थी
रूठी-रूठी सी
चुप 
उदास

सुना  था उसने कि 
रूह बसती है
इश्क करने वालों की आँखों ही में कहीं...

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गर्द आसमां ने मिटा दी उसकी लिखावट
महबूब को खत अभी भेजा नहीं था...

वो एक नेक दिन का इंतज़ार किया करती थी...

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बुधवार, अगस्त 22, 2012

रिदम ऑफ हर लाइफ

उसकी मुस्कुराहट को एक आवाज़ की दरकार थी जो उसने एक अरसे से नहीं सुनी थी. यूं कहने को सब कुछ ठीक ही चल रहा था पर दिल को कहीं सुकून न था. हर तरह के मौसम देर से ही सही, लौट कर आते हैं...फिर इस बार के मौसम की बेरुखी इतनी लंबी क्यूँ ?

याद करने की कोशिश की तो कुछ याद नहीं आया कि इसकी वजह क्या थी.... यकीनन कोई तकरार हुई होगी. ये कोई नयी बात नहीं थी उन दोनों के बीच. पर यूं ज़िंदगी को ख़ामोशी से ज़ाया होने देना और कुछ न कहना एक दूसरे से....ये शायद पहली बार हुआ था. रात होते ही एक डर उसे घेर लेता कि अगर ये रात उसकी ज़िंदगी की आखिरी रात हुई तो वो अपने महबूब से रूठकर ही ज़िंदगी से अलविदा कह देगी. 

कितने ऊल-जलूल ख्याल रात भर उसका पीछा करते और वो इन सबसे भागते-भागते सुबह का दामन पकड़ लेती. दिन की रोशनी और व्यस्तताओं में वो अपने महबूब को भूलने की कवायत ज़्यादा से ज़्यादा करती. कमबख्त बारिशें उसका मन और भिगो देतीं. नींद उसकी आँखों से दूर....कहीं दूर रहती. कुछ अच्छे कहे जाने वाले कामों में दिल लगाने की कोशिश करते-करते एक अरसा गुज़र गया. 

पता नहीं वो किस से लड़ रही थी पर एक दिन वो हार गयी. पहले उसने अपने दिल की बात सुनी.... और फिर वो आवाज़...."रिदम ऑफ हर लाइफ".  ज़िंदगी में एक संगीत भर गया....मद्धम संगीत....और उसकी धुन पर वो मुस्कुरा रही है....

गुरुवार, अगस्त 09, 2012

बारिशें....बाहर भी....


जब से मैं खुदको वहाँ छोड़ आयी थी मेरे होने का पता कहीं से नहीं मिला. वो एक जगह, जहाँ मैं महफूज़ थी....वो बस उसका दिल था. सारे मौसम वहीँ दस्तक दिया करते और मैं जब जी करता, जितना जी करता मौसमों को अपने पास बुलाती....कोई फिक्र नहीं थी किसी बात की....कहाँ गयीं सारी बारिशें....और कहाँ खो गए वो सिहरन भरे दिन....सिर्फ एक याद ही है जो आँखों में बारिशें लाती है....और ज़हन में सिहरन भर देती है...

चाँद देखने के लिए सिर्फ छत की मुंडेर ही काफी नहीं होती ना...तुम्हारे काँधे पे सर रखकर पीले चाँद की खूबसूरती को तका था मैंने....उन दिनों फिज़ाओं का सारा संगीत मुझमे सिमट आता था....और उस संगीत में गूंजती थी सिर्फ एक आवाज़....तुम्हारी आवाज़....रिदम ऑफ माय लाइफ....मैंने उस आवाज़ को मुझमें घुल जाते हुए देखा है....और खुदको उस आवाज़ में घुलते हुए....उसके बाद कुछ याद नहीं आता कि क्या हुआ था....कहाँ खो गया सारा संगीत....और उस आवाज़ की गूंज अब तक मुझे क्यों सताती है....

कुछ भी मरा नहीं है पर सब बोझिल सा है....मन, मौसम सब कुछ....

ये गहरी आसक्ति है या अनासक्ति कुछ पता नहीं है....

भटकने के बाद वापस आने का रास्ता ढूँढना गहरी पीड़ा देता है....जो लोग चलते ही भटकने के लिए हैं उनकी पीड़ा का क्या ? क्या कोई ऐसी जगह है जहाँ सारे सवालों के जवाब मिल जाएँ ? 

सोमवार, जून 25, 2012

ज़िन्दगी....एक सफ़र है सुहाना ?

पूरे एक महीने तक अपने घर को नए रंगों और नए आयामों से सजाने के बाद सुकून से नींद आयी. बिटिया कुछ दिनों से नानी के घर गयी हुई थी. वो मुझे और मैं उसे बहुत याद कर रहे थे. अब ये मुमकिन था कि मैं बिटिया को लेने जा सकूँ, साथ ही अपने प्रियजनों और मित्रों से भी मिल सकूँ. आनन-फानन में यहाँ से जोधपुर और फिर आगे जयपुर तक का प्रोग्राम बनाया गया क्यों कि एक नियत तिथि तक यहाँ फिर से उपस्थिति दर्ज  करवानी ज़रूरी थी.


जिस दिन हम यहाँ से रवाना हुए मौसम ने खूब साथ दिया. ऐसा लगा कि बारिश ज़रूर होगी. बारिश तो नहीं हुई पर सफ़र बहुत सुहाना रहा. जोधपुर पहुँचने पर हमेशा ही ऐसा होता है कि बस दिन भर वहाँ काम निपटाने होते हैं. कितनी सड़कों से कितनी यादें जुड़ी होती हैं, पर वो सब पीछे छूटती जाती हैं..... दिन अपनी रौ में बहता रहता है. शाम को किसी अच्छे रेस्तरां में खाना खाया और फिर शहर की यादों को सीने में छुपाकर सो गयी. 

अगले दिन शाम तक मैं जयपुर पहुँची.जयपुर शहर से अभी लगाव महसूस नहीं होता. पर बेटी से बहुत दिनों बाद मिली थी इसलिए बहुत खुश थी और फिर माँ के साथ तो मैं जितना भी वक्त गुजारूं कम ही लगता है.

 उसी शाम एक बहुत पुराने मित्र के साथ सपरिवार एक रेस्तरां में रात्रिभोज किया. कुछ नाराजगियां कभी साथ नहीं छोड़तीं. ऐसा ही कुछ मेरे और भाई के साथ है. वो मुझसे खुश कब हुआ ये तो याद नहीं पर नाराज़ अक्सर ही रहता है. उसे ये बात नागवार गुज़रती है कि मैं दो-चार दिन के अल्प समय में भी कुछ वक्त दोस्तों के साथ बाँट लूँ. शायद जिन चीज़ों से हम भागते रहते हैं वो बार-बार हमारे सामने आ खड़ी होती हैं. मैंने अगले दिन घर पर ही रहने और साथ खाना खाने का मन बनाया था, शायद भाई खुश हो जाता. पर अचानक एक दूसरे मित्र के बुलावे पर मुझे लंच करने उसके घर जाना पड़ा. ये सब इतना जल्दी में हुआ कि मुझे कुछ और सोचने का मौका ही नहीं मिला. दोस्त के साथ वो दिन बहुत खूबसूरत बीता और शाम घर पर ही बेहद हसीन. 


दो दिन बाद जोधपुर वापसी थी पर एक अफ़सोस खाए जा रहा था कि छुट्टियाँ ऐसे ही बीत जाएँगी और एक दोस्त को इस समय मेरी सबसे ज्यादा ज़रूरत है पर मैं उससे मिल नहीं पा रही हूँ. दरअसल मेरी एक मित्र ने पिछले दिनों एक गंभीर बीमारी में अपने पति को खो दिया और मैं अब तक उससे मिल नहीं पाई थी. मुझे मालूम था कि ये बेहद ज़रूरी था पर अब तक ये मुलाक़ात हो नहीं पाई थी. बातों ही बातों में पूरा प्रोग्राम बदल गया. अगले ही दिन वोल्वो से दिल्ली का सफ़र किया. बस का सफ़र बहुत मुश्किल लगता है इसलिए एक दिन आराम करने के बाद एक कार टैक्सी से पंजाब का रुख किया. 


सबसे मुश्किल काम लगता है मुझे किसी को ये समझाना कि जो हो गया उसे बदला नहीं जा सकता....या फिर सब कुछ डेस्टिनी है. मैंने अपनी मित्र को फोन पर कहा कि मैं उसके पास आ रही हूँ. 

पर हमारे तयशुदा कार्यक्रम के अनुसार हमें पहले अमृतसर जाना था और फिर अगले दिन  उस मित्र के पास जालंधर आना था. अमृतसर में जितना भी वक्त बिताया बहुत खूबसूरत था. स्वर्ण मंदिर एक बार तो सबको देखना ही चाहिए. अत्यधिक गर्मी के बावजूद भी लोगों की श्रद्धा देखते ही बनती है. और शाम को वागा बॉर्डर पर सब लोगों का जोश और जूनून काबिल-ए-तारीफ़ है. पड़ोसी मुल्क के लोगों को इतना करीब से देखा. पर सबसे खूबसूरत दृश्य तो वो था जिसमें दोनों मुल्कों का द्वार खुलते ही एक छोटी सी गिलहरी अपनी मस्ती में इस मुल्क से उस मुल्क तक की सैर चंद मिनटों में कर आयी और वो भी बिना वीसा और पासपोर्ट के. सोनू निगम का गाया गाना बहुत याद आया उस वक्त," पंछी...नदिया....पवन के झोंके.....कोई सरहद ना इन्हें रोके......"


अब हमारी रवानगी हुई जालंधर. देश के जाने-माने इंस्टिट्यूट में नाम आता है लवली प्रोफेशनल यूनिवर्सिटी का, उसी में लेक्चरर है मेरी मित्र. लगभग नौ सौ एकड़ मैं फैला इंस्टिट्यूट और उसकी एक बिल्डिंग के पांचवे फ्लोर पर, एक कमरे में बसी मेरी मित्र की बची हुई दुनिया. सब कुछ सामान्य से अधिक शांत. "बच्चों को शाम को क्रेच से ले आउंगी." ऐसा उसने कहा. हम उससे एक बार फिर वही बातें करने लगे जो पिछले तीन-चार महीनों से उससे फोन पर होती रहीं थी. इस बार उसके आंसू नहीं बहे. उसे थोड़ा संभला हुआ देखकर अच्छा लगा. 

बच्चों ने आते ही रौनक बढ़ा दी. उसकी दोनों बेटियाँ मेरी बिटिया से छोटी हैं पर तीनों इतना ज्यादा घुल-मिल गयी मानो रोज़ ही मिलती रही हों. उसकी छोटी वाली बिटिया तीन साल की है, बेहद मासूम. बच्चों को लेकर हम लोग शाम को बाहर घूमने निकले. जालंधर का मशहूर रेस्तरां 'हवेली'.....क्रिएटिविटी की बेहतरीन मिसाल. ठेठ पंजाबी माहौल...बच्चों के साथ मिलकर हम सब ने वहाँ खूब अच्छी शाम गुज़ारी.

एक वीरानगी उसकी आँखों में .....और एक कमी उसकी मुस्कराहट में भी दिखती रही..... ज़िंदगी इतनी बेरहम कैसे हो जाती है कभी-कभी. 

मुझे अगले दिन सुबह दिल्ली के लिए रवाना होना था. उसकी छोटी वाली बिटिया ने नींद से उठते ही कपड़ों की अलमारी खोली, अपनी एक ड्रेस निकालकर मम्मी से बोली,"मुझे मौसी के साथ ही जाना है." उस मासूम को झूठा दिलासा देकर मुझे वहाँ से रवाना होना पड़ा. रास्ते भर हम उनकी ही बातें करते रहे. दिल को तसल्ली मिली उससे मिलकर..... वो अपनी ज़िंदगी में लौट रही है धीरे-धीरे. ढेरों दुआएं उस दोस्त के लिए जिसने मेरे अच्छे-बुरे वक्त में मेरी फ़िक्र की. शाम तक मैं दिल्ली लौट आई और एक दिन बाद जोधपुर. 

मैं जानती थी सिरोही पहुँचने के लिए मैं पहले से ही दो दिन लेट हो चुकी थी इसलिए जोधपुर से जल्द से जल्द सिरोही आना था. इस दौरान दो-तीन मित्रों से गर्मी की छुट्टियों में मिलने का वादा निभा नहीं सकी, उन सबसे माफ़ी चाहती हूँ.

लौटकर आयी तो मेरी जालंधर वाली मित्र का ई-मेल आया हुआ था....उससे मिलना कितना ज़रूरी था ये सिर्फ़ उस मेल को पढ़कर जाना जा सकता है. मुझे जितना लग रहा था कि उसे मेरी ज़रूरत है उससे कहीं ज्यादा उसे मेरी ज़रूरत थी.....



शनिवार, मई 26, 2012

आज तुम्हारे अलावा कुछ भी बीता नहीं है मुझपर.....

किले का परकोटा इतना खूबसूरत और विशाल था कि उसे एक निगाह में समाया जा सकना मुमकिन नहीं था. शाम की बेसलीकी रात में बदलने ही वाली थी. किले के प्रवेश द्वार पर सजीले ऊँट भी सवारी करवाने को तैयार थे. मुझे लगा कि इस खूबसूरत जगह पर मैं शायद पहले भी कभी आयी हूँ. मन ही मन सोचने लगी कि किले के अन्दर जाने से बेहतर होगा ऊँट कि सवारी करना.
 
यकायक पीछे से आयी आवाजों से कहीं आग लगने का अंदेशा हुआ. मुड़कर देखा घनघोर धुआं दिखाई दे रहा था. पर तुमने जिस बेफिक्री से मेरा हाथ थाम रखा था मेरे पैर यंत्रवत आगे बढ़ते रहे. तुम्हारी आँखों में सवाल नज़र आ रहे थे पर तुमने कुछ पूछा नहीं था....मुझे लगता है तुमने जवाब भी जान ही लिए होंगे....
 
 काश कि ये प्यार भी पीले पत्तों की बिछी चादर जैसा होता जिसे रौंदकर बेफिक्र रहा जा सकता.
 
जी करता है कि एक कोरे कागज़ पर वो सब लिख डालूँ जो बेतरतीब होकर बुझ गया है. राहतों के पुल बनाकर तुम उनपर रोज़ ही चलना सिखाते हो मगर मेरी उम्मीदों के पाँव डगमगाने लगते हैं. लौ बुझने को है और रोशनी के आखिरी पलों में तुम्हारी सूरत देखना चाहती हूँ....तुमने ही कहा था एक बार..." तुम किस अंधरे के बात करती हो कि चांदनी भी जिसका साथ कभी-कभी ही छोड़ पाती है "
 
 वो दूर कहीं बुझ रहा है चाँद भी....बीते दिनों को याद करना गवारा नहीं कि आज तुम्हारे अलावा कुछ भी बीता नहीं है मुझपर..... और इस बीत जाने के अलावा चाहा नहीं है कुछ भी...
 
 

बुधवार, अप्रैल 18, 2012

काश कि जिए जाना ही ज़िंदगी हो जाये

सुबह 6.40 पर एक मित्र का पहला कॉल मिस कर दिया तो एक अफ़सोस के साथ आँख खुली. बेटी के स्कूल का भी पहला दिन आज ही था. उसे जगाना कोई आसान काम नहीं है, पर ज़रूरी था. वो भी थोड़ी नाराज़गी के साथ ही उठी. बेटी के पापा भी अलसाये से उठे और सब व्यस्त हो गये अपने-अपने कामों में....

जन्मदिन पर कोई अपना नींद से उठते ही शुभकामनाएं दे तो कितना अच्छा लगता है...बेटी के पापा तो रात बारह बजे ही शुभकामनाएं दे चुके थे इसलिए शायद अब आराम से ही बात होगी... इसलिए मैं भी बेटी के लिए टिफ़िन बनाने जाने लगी कि माँ उठ गयी. सुबह की पहली शुभकामना और आशीर्वाद उन्ही से  मिला. मैं खुश हो गयी और तभी बेटी और बेटी के पापा खूबसूरत कार्ड और गिफ्ट के साथ मुझे शुभकामनायें देने लगे...दिन अपनी रौ में खूबसूरती से बहने लगा...


अनगिनत बधाईयाँ और शुभकामनाएं मिल रहीं हैं तब से अब तक ...मैं ऐसे दोस्तों के बीच खुद को धन्य महसूस करती हूँ जो हर हाल में मेरे साथ हैं...और जिनकी दुआएं मुझ पर असर करती हैं...


मेरी एक मित्र ने शुभकामनाओं स्वरुप मुझे लिखकर दिया..."आप वो हैं, जिनसे मैंने सिखा है कि 'खुद' हो जाना क्या है....और अब बस मेरी भी यही इच्छा है कि मैं 'मैं' बन सकूँ...!" ये मेरे लिए खुशी की बात हैं कि मेरी मित्र ने मुझे इतनी अच्छी तरह से जाना.

मेरी एक और सबसे प्यारी मित्र ने मुझे सिर्फ़ इसलिए देर से फोन किया कि मेरी नींद में खलल ना पड़े , उसे ये तो पता है कि मुझे देर तक सोना पसंद है पर ये भूल जाती है कि अब मुझे बेटी को स्कूल भेजने के किये जल्दी उठना ही पड़ता है...शुक्रिया दोस्त, हमेशा मेरे साथ बने रहने के लिए.

लगभग तीस साल पुरानी एक और मित्र की आवाज़ आज कोई छः महीने बाद सुनी होगी पर ऐसा लगा जैसे रोज़ बात होती है...बहुत ही अपनेपन और नज़दीकी का एहसास होता है कुछ खास दोस्तों के साथ...वो है ही ऐसी जिंदादिल...


बीस साल पुरानी बात है जब जोधपुर यूनिवर्सिटी में  एम.एस.सी. करते ही पर पीरियड बेसिस पर कक्षाएं लिया करती थी मैं.... के.एन. कॉलेज की एक विद्यार्थी मेरे पढ़ाने के तरीके से बेहद प्रभावित हुई. बाद में वो भी एम.एस.सी. और पी.एच.डी. करके लेक्चरर बनी और एक लेक्चरर पति के साथ घर बसाया. अभी कोई एक महीना पहले एक गंभीर बीमारी के चलते उसके पति का देहांत हो गया...आज भी, उस बच्ची ने मुझसे बात करके मुझे शुभकामनाये दीं...मेरी ढेरों दुआएं और आशीर्वाद उसके लिए और उसके भविष्य के लिए...कि वो दुःख और असमंजस की इस घड़ी में स्थिरता से अपने लिए सही निर्णय ले सके...ईश्वर हमेशा उसका साथ दे.

मेरे  परिवार के सब लोगों ने मेरे दिन को खास बनाया और अब शाम को कुछ मित्रों ने घर धमकने का वादा किया है...उन्हीं का इंतज़ार है...दिन बेहद अच्छा बीता है, इंशाल्लाह शाम भी अच्छी ही गुज़रेगी.


आभासी दुनिया के सच्चे मित्रों का भी दिल से शुक्रिया मेरे जन्मदिन पर मुझ पर अनगिनत दुआएं लुटाने के लिए...ऐसी हसीन ज़िंदगी पाकर मुझे अक्सर लगता है कि मेरे जीते जी "वंडर पिल" जैसी कोई दवा इजाद हो जाये जिसे लेते ही अगले मनचाहे सालों तक जिया जा सके...जीने के साथ-साथ चलने वाला मौत का डर खतम हो जाये...!!



शुक्रवार, मार्च 16, 2012

माँ को ख़्वाब में कम ही देखा करती हूँ

ये वक्त हो चला कोई दूसरा ख़्वाब देखने का, पर उस ख़्वाब का असर जाता ही नहीं.... 


उनींदी आँखों में हैरानी भरी थी. माँ को ख़्वाब में कम ही देखा करती हूँ , पर जब भी देखती हूँ नींद से जागते ही एक बेवजह की चिंता घेर लेती है कि वो ठीक तो हैं ना? 


सड़क खूब चौड़ी और साफ़-सुथरी लग रही थी. कुछ एक छोटी-मोटी गलियाँ उसके दोनों तरफ से आकर उससे जुड़ रहीं थीं. माँ एक अलग वाहन पर मेरे आगे-आगे और मैं उनसे कोई चार-पांच मीटर की दूरी पर एक दूसरे वाहन पर थी. मुझे याद है कि उन्होंने मुझे कहा कि मैं उनके पीछे-पीछे आती रहूँ. मैं ये सोचते हुए कि हम दोनों एक ही वाहन पर क्यों नहीं है....उनके पीछे जा रही थी कि अचानक माँ कहीं खो गयीं.


मैंने गाड़ी की रफ़्तार तेज कर ली और सड़क के दोनों ओर गलियों में भी देखती रही. पर माँ को कहीं नहीं पाया. आँसुओं की झड़ी लग गयी और सभी बिछड़े हुए याद आने लगे.... आगे एक रेस्तरां जैसी जगह पर सड़क खतम हो रही थी और फिर वही डरावनी ऊँचाई , जो कमोबेश मेरे हर ख़्वाब में मुझे डराने आ जाती है.  दायीं ओर एक पार्क जैसा कुछ था जिसमें ऊंचाई से गिरता झरना....


मैंने सहमकर अपनी गाड़ी को फिर से पीछे मोड़ लिया उसी सड़क पर. जाते समय जो दायीं ओर थी, अब उस बाईं ओर की, कोई दूसरी या तीसरी गली में से किसी ने आवाज़ लगाई कि मेरी माँ वहाँ है...मैं तेज़ी से उस गली में मुड गयी. एक बड़े से हॉलनुमा कमरे में कोई नहीं था जहाँ मैं अपनी माँ को ढूंढ रही थी...


अचानक आँख खुल गयी....मुझे आज दिन भर लगता रहा कि मैं अभी जाकर माँ से मिल लूँ या फिर जल्द ही वो मेरे पास आ जायें कि उन्हें देखे बहुत दिन बीत गये हैं....उनसे कहना चाहती हूँ कि उन्हें बहुत याद कर रही हूँ...कोई भी बहाना लेकर वो कुछ दिनों के लिए मेरे पास आ जायें....


माँ, ये मेरी सबसे प्रिय तस्वीरों में से एक है....आपके साथ शायद ये मेरी पहली तस्वीर होगी...!

रविवार, फ़रवरी 19, 2012

तुम्हारी याद भी बिल्कुल तुम्हारे दर्द के जैसी ही है

तुम्हारी याद भी बिल्कुल तुम्हारे दर्द के जैसी ही है जो सिर्फ़ आँखों के रस्ते बह जाती है कभी शिकायत नहीं करती. शिकायतों के मौसम अब बीत गये. एक बार कहा था तुमने कि कुछ भी स्थाई नहीं है सब बदलता रहता है बस प्यार नहीं बदलता.


वो एक सुन्दर सा बंगला था. ठीक से याद किया जाये तो उसके बाहर ढेरों खूबसूरत फूल लगे थे. उसने अजब हैरानी से पहले फूलों को देखा और फिर अपनी प्रियतम को. शायद उसे इस बात की हैरानी थी कि इस समय वो सबसे खूबसूरत किसे कहे. उसकी प्रिया कुछ परेशानी में लग रही थी, शायद किसी के आ जाने का डर रहा होगा. बात करने के लिए उन्हें तन्हाई में भी कहीं दूर निकल जाना था.


"तुमने मुझे कभी याद नहीं किया, इससे पहले?" उसने पूछा.


"नहीं, तुम मुझे याद रहे ही नहीं कभी....."


"तुम बिल्कुल भी नहीं बदली हो. बिल्कुल पहले जैसी हो." उसने आगे कहा.


"और सच पूछो तो मुझे याद भी नहीं कि तुम पहले कैसे दिखते थे....."


"मैं भी तुम्हारे चले जाने के बाद मसरूफ़ था तमाम और बातों में...पर तुम्हें भूला नहीं था...सच कहूँ, अब तुमने बहुत देर कर दी लौटने में...मैं तुमसे शायद प्यार करने लगा था और अब तक छूट नहीं पाया हूँ..."


"और मैं जिससे प्यार करना चाहती थी वो कभी मिला ही नहीं....."
पर अब बहुत देर हो चली है.....शाम होने को है और घर वापस भी जाना है....तुम अपना ख्याल रखना....."


साथ चलते-चलते वो अब अकेले ही चलने लगी. छूट तो वो भी नहीं पाई थी...पर उसने कभी कहा नहीं कि वो भी बहुत प्यार करती रही है उससे. अपनी ख़्वाहिशों में उसने किसी और को जगह नहीं दी आज तक. उसका प्यार भी स्थाई है और इंतज़ार भी.....बाकी सब कुछ बदल गया है....

मंगलवार, फ़रवरी 14, 2012

कुछ ही देर में ये मुलाक़ात खत्म हो जायेगी...

तुम्हारी याद अपने होने में निरंतर है...उसे मुझसे कोई अपेक्षा नहीं है कि मैं उसके आने या ना आने पर कुछ ध्यान दूँ ...बस वो आती ही है...हमेशा...

कुछ भी बदला ना, तो मैं रो-रो कर मर जाऊंगा...ऐसा लड़के ने कहा था.

लड़की को कभी अपने किसी फैसले पर कोई शक नहीं था, तभी तो वो शुरुआती दिनों में भी उतनी ही ईमानदारी से हँस कर कहा करती थी कि मेरा यकीन करो अब कुछ भी नहीं बदलेगा...कम-से-कम मेरी तरफ से तो नहीं... 

वो बस मुस्कुरा दी ये सोचकर कि देखना एक दिन यही लड़का बदल जायेगा... वो उसे इतना टूटकर चाहेगी  कि लड़का सब कुछ भूल जायेगा...पर सच्चाई तो कुछ और ही है ना...इसलिए एक दिन सब बदलने लगेगा और उसका दिल टूट जायेगा...ये परीकथा तो है नहीं...

पहली  मुलाक़ात में उसका हाथ एक टेबल पर था जिसे लड़के ने थाम लिया था. लड़की ने भी जब उसे अपनी पलकों से छू लिया तो उसकी उंगलियाँ लरज़ उठी थीं. वो दोनों चुपचाप बस कॉफी के प्याले से उठते धुंए को देखते रहे...वो लड़की को प्यार से चूम लेना चाहता था...ये सोचकर लड़की की आँखों में आँसू आ गये कि कुछ ही देर में ये मुलाक़ात खत्म हो जायेगी. लड़का चला जायेगा लेकिन बाकी सब कुछ पीछे छूट जायेगा. क्या सचमुच लड़का जा पायेगा ? अगर उसे जाना ही होता तो वो उस लड़की को ढूँढते हुए आता ही क्यों ? 

कुछ ही देर में ये मुलाक़ात खतम होने को थी...लड़के ने एक बारे फिर प्यार से लड़की का हाथ थाम लिया...इस स्पर्श में एक गहरी आश्वस्ति थी...लड़की उसे जाते हुए देखती रही और कुछ डूबता हुआ सा महसूस करने लगी...अपना ही शहर उसके चले जाने से बेगाना हो गया...

वो उसे टूटकर चाहने लगी और लड़का भी उस पर जी जान से मरता था...पर दोनों में सिर्फ़ एक ही अंतर था कि  वो उसे बस चाहती ही रही और लड़के का जब मन करता उसे चाहना बंद भी कर देता और फिर यूं ही उसे बेइंतहा चाहने लगता...उसे कई-कई वास्ते देता...उसकी बहुत तारीफ़ करता फिर जब मन करता उसे दिल से निकल देता...

जिस  तरह ज़िंदगी में कुछ भी स्कोर नहीं किया जा सकता वैसे ही प्यार में भी कुछ स्कोर नहीं किया जा सकता....कितनी मिन्नतें...कितने वादे...कितनी ही मुलाकातें...और फिर एक दिन क़यामत का...जब कुछ भी शेष नहीं रह जाता...सिवाय एक सवाल के कि ये सब हुआ क्यों था ?




सोमवार, जनवरी 02, 2012

इज़ाडोरा की प्रेमकथा

इज़ाडोरा डंकन की आत्मकथा 'माय लाइफ' का हिंदी अनुवाद 'इज़ाडोरा की प्रेमकथा ' का नाम ही इजाडोरा की ज़िंदगी के महत्त्वपूर्ण पहलू यानि प्रेम से ओत-प्रोत है. इज़ाडोरा ने अपनी पूरी ज़िंदगी दो चीज़ों को समर्पित कर दी ; नृत्य और प्रेम. इज़ाडोरा ने कला और प्रेम को कभी अलग -अलग नहीं माना बल्कि उसका मानना था की कलाकार ही प्रेमी हो सकता है, उसी के पास सौंदर्य को देख पाने की सच्ची दृष्टि होती है. इसी तरह प्रेम जब सनातन सौंदर्य को निहारता है तो आत्मा की आँखें भी खुल जाती हैं और सौंदर्य कला बन जाता है.

        इज़ाडोरा के बचपन की उन्मुक्तता ही उसके संपूर्ण जीवन का आधार -स्तंभ बनी, जिसने उसे विवाह जैसी संस्था का कट्टर आलोचक बनाया. इज़ाडोरा का जन्म समुद्र के आस -पास हुआ और अपने जीवन के सबसे खूबसूरत पलों को उसने समुद्र के आस -पास ही बिताया. समुद्र की बेचैन लहरों ने उसे हमेशा सुकून ही पहुंचाया , शायद इसकी उन्मुक्तता इज़ाडोरा को आकर्षित करती रही होगा. ताज़िन्दगी बंजारों की तरह इज़ाडोरा ने भी दुनिया भर में डेरे डाले और एक अदद सच्चे प्रेम की तलाश में उसने मीलों का सफर तय किया.

         बिना किसी नृत्य प्रशिक्षण के इज़ाडोरा ने अपने नृत्य की प्रेरणा प्रकृति से ही ली. विशुद्ध प्राकृतिक माहौल में पली इज़ाडोरा ने अपनी माँ के पियानो के संगीत की धुन पर थिरकना शुरू किया और सारी ज़िंदगी अपने आप को तेज ओर्केस्ट्रा की धुनों से दूर रखना चाहा. कई पियानोवादकों की धुनों पर नृत्य के नए -नए प्रयोग करते हुए नए आयाम स्थापित किये. खुद इज़ाडोरा के अनुसार यदि उसे एकल नृत्य में अपना अस्तित्व खोजना होता तो उसकी ज़िंदगी कहीं ज़्यादा सरल और भटकाव से दूर होती. पर छः वर्ष की कच्ची उम्र में ही इज़ाडोरा नृत्य-स्कूल खोलने का सपना देखने लगी और बाद में उसने तमाम परेशानियों के बावजूद भी अपने जीवन का लक्ष्य नृत्य-स्कूल ही रखा. जहां हज़ारों बच्चों पर वर्षों तक उसने कड़ी मेहनत की और उन्हें एक साथ मंच पर नृत्य करवाने का सपना भी पूरा किया. 

इज़ाडोरा ने जब भी, जहाँ भी नृत्य किया वहाँ नीले रंग के पर्दों की मौजूदगी ज़रूर रही,ये भी उसका समंदर से लगाव ही बताता है शायद.
 
नृत्य की तरह प्रेम में भी उसके प्रयोग किशोरावस्था से ही शुरू हो गये थे. इज़ाडोरा को सच्चे प्रेम की तलाश थी. उसके पुरुष-प्रेम में कहीं-कहीं ठहराव के होते हुए भी चिरंतन प्यास का आभास होता है. कुछ लोगों को उसके उन आज़ाद खयालों से परेशानी ज़रूर हो सकती है, जिसके चलते उसने विवाह को एक बंधन माना. उसने विवाह किये बिना ही ऐसे तीन प्यारे -प्यारे बच्चों को जन्म दिया था जिनके पिता अलग-अलग थे. इज़ाडोरा ने अपने पहले दो बच्चों को अथाह प्यार दिया जिसे उसने अपने नृत्य-प्रेम और पुरुष -प्रेम से कहीं ऊपर रखा. और एक दिन भयंकर त्रासदी में उसने अपने दोनों बच्चों को खो दिया. इस घोर दुःख ने उसे नृत्य और ज़िंदगी दोनों से दूर कर दिया. भयंकर अवसाद ने उसे बार -बार आत्महत्या जैसे ख्यालों की ओर धकेला, लेकिन अपनी ज़िंदगी से प्यार करने वाली इज़ाडोरा ने ज़िंदगी का दामन पकडे रखा. फिर एक दिन समुद्र पर टहलते हुए उसकी मुलाकात जिस शख्स से हुई वही शख्स उसके तीसरे बच्चे का पिता बना. ये खुशी बस चंद घंटो की ही थी . उस बच्चे के देहांत ने इज़ाडोरा को अनंत भटकाव में छोड़ दिया.

                   इज़ाडोरा ने नृत्य स्कूल के बच्चों के चेहरों में अपने बच्चों को बार-बार तलाशा लेकिन गहरी हताशा और निराशा के दिनों में वर्ष 1914 में छिड़े युद्ध के दौरान उसके नृत्य -स्कूल को एक अस्पताल की शक्ल दे दी गयी.

                     अगले कुछ वर्षों में उसकी ज़िंदगी में कुछ अच्छा नहीं घटा, सिवाय इसके की एक पियानोवादक उसकी ज़िंदगी में फरिश्ता बनकर आया . आने वाले समय में इज़ाडोरा की ही एक शिष्या के साथ इस फ़रिश्ते को अपना भविष्य नज़र आया और इज़ाडोरा के लिये ये दुःख अपने बच्चों को खोने जैसा ही रहा.

    त्रासदी की पराकाष्ठा से गुज़रने पर भी इज़ाडोरा ने प्रेम और आध्यात्म पर विश्वास किया. उन्नीसवीं सदी की महानृत्यांगना , महाप्रेमिका और महानायिका जो हमेशा इक्कीसवीं सदी की तर्ज़ पर जीती रही. उसका सपना था अपने इज़ाद किये हुए प्राकृतिक भाव - भंगिमाओं वाले नृत्य को 'अमेरिका के नृत्य ' के रूप में स्थापित करना जिसे पूरा करने में वो काफी हद तक सफल रही. लेकिन अपने  जीवन के अंतिम छः वर्ष उसने रूस में गुज़ारे और एक कार दुर्घटना में रहस्यमय ढंग से उसने दुनिया को हमेशा के लिए अलविदा कह दिया.