सोमवार, जून 03, 2013

स्मृतियाँ

कितनी भी किफ़ायत से खर्च कीजिये, एक दिन ये सांसें ख़त्म हो ही जाती हैं. महबूब के लिए बचाकर रखी हुई सांसें एक दिन उस महबूब का पता ढूंढते-ढूंढते अपना पता भूल जाती हैं और अपने घर लौट आने के बजाय एक सूनी राह पर दम तोड़ देतीं हैं. ऐसी ही कई बमुश्किल हासिल की गई सांसों ने बार-बार उस महबूब का नाम पुकारा और लौट आने से पहले ही राह में कहीं दम तोड़ दिया.

आ ही जाती है बेवफाई की उम्र वफ़ा की इस राह पर चलते-चलते. वादों की कोई उम्र नहीं होती. अपनी हार, अपने वादे, अपने ज़ख्म क्यूँकर याद रखेगा कोई? क्या भूला जा सकता है इन्हें? या फिर भूल जाने का भरम बस कुछ पलों का ही है? कुछ पलों के सच को ज़िन्दगी भर का सच तो नहीं माना जा सकता. और फ़िर ज़िन्दगी भर का सच किसे कहेंगे? जो हम जी रहे हैं क्या वो ज़िन्दगी भर का सच नहीं है?

महबूब से मिलकर लगा यही एक सच है, बिछड़कर और भी सच लगा. फिर उसका इंतज़ार एक सच क्यूँ नहीं हो सकता? उसका साथ न होना ही उसका होना क्यूँ लगता है? इस न होने को अगर भूल जाऊं तो वो हर पल मेरे साथ ही है. बस उसे पकड़कर कैद करने की जानलेवा कोशिश नहीं करना चाहती. वो भी मेरे साथ न होने को यक़ीनन साथ होना ही मानता होगा, ये एक सच भी तो हो सकता है.

बारिश की बूंदों में झरती हमारी हंसी एक खुशगवार दिन का सच रही है. घास पर बिखरी ओस की बूंदों जैसी हंसी....हवाओं में एक गीत....एक संगीत बिखेरती हंसी....हम दोनों को जोड़ने वाली हंसी....

स्मृतियों की नीव एक सच पर रखी होती है....उस सच के साथ जीने की कोशिश हमें अपने आप से दूर किये जाती है, फिर भी हमारे वजूद का एक ज़रूरी हिस्सा हैं स्मृतियाँ....

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