गुरुवार, अगस्त 09, 2012

बारिशें....बाहर भी....


जब से मैं खुदको वहाँ छोड़ आयी थी मेरे होने का पता कहीं से नहीं मिला. वो एक जगह, जहाँ मैं महफूज़ थी....वो बस उसका दिल था. सारे मौसम वहीँ दस्तक दिया करते और मैं जब जी करता, जितना जी करता मौसमों को अपने पास बुलाती....कोई फिक्र नहीं थी किसी बात की....कहाँ गयीं सारी बारिशें....और कहाँ खो गए वो सिहरन भरे दिन....सिर्फ एक याद ही है जो आँखों में बारिशें लाती है....और ज़हन में सिहरन भर देती है...

चाँद देखने के लिए सिर्फ छत की मुंडेर ही काफी नहीं होती ना...तुम्हारे काँधे पे सर रखकर पीले चाँद की खूबसूरती को तका था मैंने....उन दिनों फिज़ाओं का सारा संगीत मुझमे सिमट आता था....और उस संगीत में गूंजती थी सिर्फ एक आवाज़....तुम्हारी आवाज़....रिदम ऑफ माय लाइफ....मैंने उस आवाज़ को मुझमें घुल जाते हुए देखा है....और खुदको उस आवाज़ में घुलते हुए....उसके बाद कुछ याद नहीं आता कि क्या हुआ था....कहाँ खो गया सारा संगीत....और उस आवाज़ की गूंज अब तक मुझे क्यों सताती है....

कुछ भी मरा नहीं है पर सब बोझिल सा है....मन, मौसम सब कुछ....

ये गहरी आसक्ति है या अनासक्ति कुछ पता नहीं है....

भटकने के बाद वापस आने का रास्ता ढूँढना गहरी पीड़ा देता है....जो लोग चलते ही भटकने के लिए हैं उनकी पीड़ा का क्या ? क्या कोई ऐसी जगह है जहाँ सारे सवालों के जवाब मिल जाएँ ? 

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