कोई आठ-दस सीढ़ियाँ नीचे उतरकर दाहिनी ओर एक मंदिर का गर्भगृह था वो. उस मंदिर का मुख्यद्वार जो कुछ असमान आकार के दो पटों से मिलकर बना था, बंद लग रहा था. उसने उस दरवाज़े के छोटे वाले पट को धीरे से धकेला तो वो खुल गया. चार-पाँच सीढ़ियाँ नीचे उतरते ही अन्दर से एक दाढ़ी वाले व्यक्ति आते दिखाई दिये जो संभवतः इस मंदिर के पुजारी थे. मंदिर के गर्भगृह से सुगन्धित धुंआं उठ रहा था जो किसी हवन के धुंएं जैसा प्रतीत होता था. पुजारी ने उसे अन्दर बुलाना चाहा पर वहाँ के माहौल में कुछ अटपटापन भांपकर उसे मंदिर के अन्दर जाने का मन नहीं हुआ. एक पल और सोचने के बाद उसने मंदिर से बाहर आना ही उचित समझा. उसने पुजारी से बहाना किया कि बाहर कोई इंतज़ार कर रहा है इसलिए अभी वापस जाना ज़रूरी है. दरवाज़े के उस छोटे पट को बंद करके बाहर की हवा में पैर रखते ही उसने राहत की साँस ली.
बाहर कोई नहीं था जो उसका इंतज़ार करता. मंदिर के बाहर मैदान में इक्का-दुक्का बेंचें लगी थीं उसने दो पल वहाँ बैठना चाहा. एक बेंच पर ज़रा छाँव थी , उसी को उसने अपने बैठने के लिए चुना.
उसे याद आया कि जब-जब उसने कोई सपना देखा, तब चारों ओर पानी ही पानी हुआ करता था और चंद सीढ़ियाँ, जिनसे चढ़कर केवल ऊपर की ओर जाया जा सकता था. नीचे आने के समय वो सीढ़ियाँ वहाँ से गुम हो जाया करती थीं, उसने हमेशा बस एक पुल पर खुद को अकेले खड़े पाया, पता नहीं किसका इंतज़ार करते हुए.... उसे कभी कोई वहाँ आता नहीं दिखाई दिया, न ही कोई वहाँ से जाता था.
दूर कहीं से एक रेलगाड़ी की आवाज़ सुनाई दी. इस आवाज़ को सुनकर उसे अपना बचपन ज़रूर याद आता था. बचपन में जब भी रेलगाड़ी का सफ़र करते और वो किसी पुल के ऊपर से गुज़रती थी पुल के नीचे का पानी उसके मन में एक झुरझुरी पैदा कर देता था. उसने बचपन के ख्यालों को दूर धकेला और वापस उसी जगह लौटना चाहा.
उसकी कहानी का कोई नायक नहीं था, ऐसा उसे लगा. कोई प्रतिद्वंदी भी नहीं. बस वो खुद और उसका अकेलापन.... जिसने भी उससे प्यार किया जी भर कर किया, पर उसे कभी कोई ऐसा नहीं मिला जिसके बिना जिया न जा सके और उसे हमेशा उसी एक की तलाश थी. आज फिर उसे ऐसा ही महसूस हो रहा है, जैसे वो किसी ऐसे पुल के ऊपर है जिससे नीचे जाने का कोई रास्ता नहीं है. चारों ओर बस पानी ही पानी है. दूर पश्चिम में डूबता हुआ सूरज भी उसी की तरह किसी का इंतज़ार करते-करते थक कर वापस जा रहा है....
बाहर कोई नहीं था जो उसका इंतज़ार करता. मंदिर के बाहर मैदान में इक्का-दुक्का बेंचें लगी थीं उसने दो पल वहाँ बैठना चाहा. एक बेंच पर ज़रा छाँव थी , उसी को उसने अपने बैठने के लिए चुना.
उसे याद आया कि जब-जब उसने कोई सपना देखा, तब चारों ओर पानी ही पानी हुआ करता था और चंद सीढ़ियाँ, जिनसे चढ़कर केवल ऊपर की ओर जाया जा सकता था. नीचे आने के समय वो सीढ़ियाँ वहाँ से गुम हो जाया करती थीं, उसने हमेशा बस एक पुल पर खुद को अकेले खड़े पाया, पता नहीं किसका इंतज़ार करते हुए.... उसे कभी कोई वहाँ आता नहीं दिखाई दिया, न ही कोई वहाँ से जाता था.
दूर कहीं से एक रेलगाड़ी की आवाज़ सुनाई दी. इस आवाज़ को सुनकर उसे अपना बचपन ज़रूर याद आता था. बचपन में जब भी रेलगाड़ी का सफ़र करते और वो किसी पुल के ऊपर से गुज़रती थी पुल के नीचे का पानी उसके मन में एक झुरझुरी पैदा कर देता था. उसने बचपन के ख्यालों को दूर धकेला और वापस उसी जगह लौटना चाहा.
उसकी कहानी का कोई नायक नहीं था, ऐसा उसे लगा. कोई प्रतिद्वंदी भी नहीं. बस वो खुद और उसका अकेलापन.... जिसने भी उससे प्यार किया जी भर कर किया, पर उसे कभी कोई ऐसा नहीं मिला जिसके बिना जिया न जा सके और उसे हमेशा उसी एक की तलाश थी. आज फिर उसे ऐसा ही महसूस हो रहा है, जैसे वो किसी ऐसे पुल के ऊपर है जिससे नीचे जाने का कोई रास्ता नहीं है. चारों ओर बस पानी ही पानी है. दूर पश्चिम में डूबता हुआ सूरज भी उसी की तरह किसी का इंतज़ार करते-करते थक कर वापस जा रहा है....