रविवार, मार्च 09, 2014

इत्ती सी ख़ुशी

पार्क की एक ऐसी बेंच को उसने चुना जहाँ बैठकर वो सामने की इमारत में आते-जाते लोगों को देख सकती थी पर खुद उसे कोई नहीं देख सकता था कि एक छोटे से पेड़ की आड़ में वो ज़रा छुपकर बैठी थी. हाँ, ये जगह हमेशा अच्छी लगती है कि यहाँ मुझे कोई देख नहीं पायेगा...उसने मन ही मन सोचा...वो जब भी उदास होती तब यहीं आकर बैठ जाया करती थी. पार्क में माली को काम करते देखती रहती, अपने फोन से खेलती रहती, सामने वाली इमारत में आते-जाते लोगों को देखती रहती और अपने दोस्तों को फ़ोन पर जवाब देती कि आज किसी से मिलने का मन नहीं है...

इमारत के अन्दर जाने के लिए दो दरवाज़े बने हुए थे और वहाँ बरसों से एक कॉलेज चल रहा था. उसे कॉलेज के लोगों में ज़रा भी दिलचस्पी नहीं थी और न ही उस इमारत के नक़्शे में, वरन जिस जगह पर वो बैठी थी वहाँ से भी लोगों की फ़ीकी मुस्कानों को पढ़ लिया करती थी...

कि कोई ये कैसे बताये कि वो तन्हा क्यूँ है...वो अपने दोस्तों की अज़ीज़ दोस्त है और अपने घर में सबकी सबसे ख़ास...कोई ऐसा मुकाम नहीं था जो उसने सोचा हो और पाया न हो...वो छोटी-छोटी खुशियों में खुश होना जानती थी और उदास होने की कोई पुख्ता वजह नहीं थी...पर जीने के लिए कोई शगल पालना था और न जाने कब और कैसे उदासी उसका शगल बन गयी...

ख़ुशी जैसे एक तितली थी उसके हाथ ही नहीं आती थी और वो बस हर वक़्त उस एक तितली के पीछे-पीछे दौड़ती रहती थी जिसके रंग लुभावने थे और छवि मोहक. कभी-कभी उसे लगता था कि ये खूबसूरत ख्वाब है कि वो बस उस तितली को छूने ही वाली है और कभी उसे लगता कि वो खुद एक तन्हा उदास तितली बन गयी है. उदासी, उसके दिन का एक ज़रूरी हिस्सा बन गया था.

हर दिन की शुरुआत एक अनमनेपन से होती और अंत एक गहरी हताशा से. एक तृष्णा जो उसे दिन भर भटकने पर मजबूर करती और रात में उसके ख्वाबों में भी उसका पीछा नहीं छोडती. अनगिनत सवाल ज़हन की खाली जगहों को भरते रहते और कभी भरी हुई जगहों को दोबारा भरते.

 ये उसकी लड़ाई थी अपने आप से...!