मंगलवार, अगस्त 16, 2011

सब कुछ सो जाने पर भी ज़हन में कुछ है, जो जागता रहता है......

आधी रात को आँख खुलते ही ये एहसास हुआ कि जैसे बची हुई ज़िंदगी के चंद आखिरी लम्हे गुज़ारने बाकी हों बस. याद नहीं, आखिरी बार कब सुकून से नींद आयी थी. जाने क्यूँ बीता हुआ बचपन,याद आने लगा...दोपहरी में माँ-पापा के सो जाने के बाद, भाई-बहन के साथ चोरी-चोरी खेलना और फिर माँ-पापा की डांट. लौट आया फिर से ज़हन में छुक-छुक गाड़ी का लंबा सफ़र, जो कभी-कभी उबाऊ हो जाता था, जब खिड़की के पास वाली सीट नहीं मिलती थी. बीता हुआ कल इतनी जल्दी अपनी शक्ल बदल लेगा ये सोचा नहीं था. हाँ, बचपन अभी कल परसों की ही तो बात लगती है.

मैंने चाँद को लाने की ज़िद कभी की हो, ये तो याद नहीं, पर तितलियों से भी जी नहीं बहलता था. पता नहीं किस चीज़ की, पर कोई तलाश तो थी हमेशा से. रात में सब के सो जाने के बाद कविताओं के ज़रिये खुद को तलाशना टीनएज की आदत बनी. फिर कभी एक अच्छा दिन बीत जाये तो ज़िंदगी से प्यार हो जाता और एक बुरे से दिन के बाद सारा गुस्सा भी इस ज़िंदगी पर ही उतरता था.

आदतें कहाँ जाती हैं ? वो चाहे चीज़ों की पड़ जायें या फिर लोगों की, कुछ भी छूटता कहाँ है ? बस थोड़ा सा पीछे रह जाता है. आज भी ये आदत पीछा नहीं छोड़ती कि सब कुछ सो जाने पर भी ज़हन में कुछ है, जो जागता रहता है. कभी बचपन के खेल और भाई-बहन का प्यार, कभी टीनएज के दोस्त और उनके लिए कुछ भी कर गुज़रने की चाहत और फिर कभी-कभी खोया हुआ सा कोई लम्हा.... कभी- कभी ये सब सपनों की शक्ल लेकर जागता  है तो कभी गुमखयाली वजूद का एक अहम हिस्सा बन जाती है...

सुकून  की नींद अब शायद क़यामत के दिन ही नसीब होगी.....